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कानून बदलिए तो जिम्मेदारी तय हो

केंद्र सरकार ने ब्रिटिश जमाने के कानूनों को बदलने की प्रक्रिया जारी रखी है। इसके बारे में दलील दी गयी है कि नए आपराधिक कानून बिल ने औपनिवेशिक युग की दंड संहिता, आपराधिक प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम को सुव्यवस्थित और सुधारित किया है। भारतीय दंड संहिता, जिसे भारतीय न्याय संहिता के नाम से जाना जाता है, पारित होने पर इसमें कम धाराएँ होंगी।

सुधारों का उद्देश्य आपराधिक कानून को समाज में बदलाव के साथ संरेखित करना है, और खोज-और-जब्ती या सबूत इकट्ठा करने और अन्य आवश्यकताओं के लिए तकनीकी प्रगति का उपयोग करना होगा। पुलिस को प्रगति की रिपोर्ट प्रस्तुत करने और मुकदमों को पूरा करने के लिए समय सीमा दी गई है; सरकार का आशावाद असीमित लगता है।

लेकिन एक और समय सीमा बढ़ा दी गई है: किसी व्यक्ति को बिना आरोप के कितने दिनों तक हिरासत में रखा जा सकता है। यह मजबूत सरकारी नियंत्रण का सुझाव देने वाले परिवर्तनों में से एक है। इसलिए पुलिस की शक्तियां बढ़ गई हैं. इनमें से यह निर्णय लेने का उनका अधिकार है कि कौन सी प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज की जाए, और कथित आर्थिक अपराधों के साथ-साथ ‘आदतन दोहराने वाले’ अपराधियों सहित अपराधों की एक बड़ी श्रृंखला के लिए गिरफ्तारी पर हथकड़ी का उपयोग करने का कोई परिभाषा नहीं है कि कौन इसके लिए योग्य होगा।

सुप्रीम कोर्ट ने एक से अधिक बार फैसला सुनाया है कि हथकड़ी ही अंतिम उपाय है। लेकिन गरिमा जैसे संवैधानिक सिद्धांत ज्यादा नजर नहीं आते. इसके बजाय, आतंकवाद की अस्पष्ट और व्यापक परिभाषाओं के साथ, या देश की संप्रभुता या एकता को खतरे में डालने के लिए विरोध प्रदर्शनों को शांत करना आसान होगा, जो केवल भाषण और लेखन के माध्यम से हो सकता है।

राजद्रोह कानून को निरस्त कर दिया गया है, लेकिन ये व्यापक परिभाषाएँ इसके सिद्धांतों को अवशोषित करती हैं और उन्हें तेज करती हैं। उदाहरण के लिए, शांति भंग करने वाली सभाओं की अस्पष्ट अवधारणा में अहिंसक विरोध शामिल हो सकता है। आत्महत्या को अपराध की श्रेणी से बाहर रखा गया है, सिवाय इसके कि जब किसी सरकारी अधिकारी को निशाना बनाया गया हो।

मॉब लिंचिंग एक अपराध है, लेकिन सभी सदस्यों के लिए मृत्युदंड तक की सजा अव्यावहारिक है क्योंकि साक्ष्य जुटाना असंभव होगा। जबकि पुरुषों को छोड़कर केवल महिलाओं को ही बलात्कार के विषय के रूप में देखा जा रहा है, ‘अपमानजनक शील’ की औपनिवेशिक अभिव्यक्ति को बरकरार रखा गया है। इस बीच, शादी के वादों में धोखे में गलत पहचान बताना शामिल है; क्या मंडरा रहा है लव-जिहाद?

ऐसे कई छोटे बदलाव, परिवर्धन और शांत विलोपन हैं जो भारतीय कानून संहिता की भावना को पूरी तरह से बदल देते हैं, जो सरकार को संवैधानिक सीमाओं से परे सशक्त बनाते हैं। फिर भी विशेषज्ञ बताते हैं कि किए गए वास्तविक परिवर्तन केवल 20 फीसद के आसपास हैं। राष्ट्रवाद के नाम पर किये गये सुधारों का परिणाम अजीब होता दिख रहा है।

दूसरी तरफ ब्रिटिश राज की कार्यसंस्कृति अब भी यथावत है। साफ शब्दों में कहें कि भारतीय ब्यूरोक्रेसी ही देश की अंतिम व्यवस्था है, जिसका हर चीज पर नियंत्रण हैं। किसी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए यह कोई गलत बात शायद नहीं है। लेकिन असली गड़बड़ी तो इन्हीं अफसरों से प्रारंभ होती है, जिनमें घूसखोरी एक कार्यसंस्कृति बन चुकी है।

दरअसल नेताओं को पैसा देकर मनचाहे स्थान पर पोस्टिंग से इस बेइमानी की नींव रखी जाती है। उसके बाद यह ऊपर से नीचे तक गंगोत्री की तरह प्रवाहित होता है। घूस देकर पोस्टिंग पाने वाले आते ही अपने पैसे की वसूली में जुट जाते हैं। अगर ब्रिटिश राज की कार्यसंस्कृति में वाकई सुधार करना है तो किसी की इच्छा के बगैर ही अधिकारियों को पोस्टिंग के लिए वर्तमान परिवेश में मौजूद साफ्टवेयर और कृत्रिम बुद्धिमत्ता का भी इस्तेमाल किया जा सकता है।

तीन साल की कार्यावधि के बाद कौन अधिकारी कहां जाएगा, इसका अंदाजा उसके ऊपर का अफसर भी नहीं लगायेगा। दूसरी बात यह है कि किसी आर्थिक आरोप में फंसे अफसर की चल अचल संपत्ति को जांच पूरी होने तक जब्त करने की प्रक्रिया भी होनी चाहिए। वरना एक अफसर दूसरे अफसर के खिलाफ लंबे समय तक जांच की प्रक्रिया को जारी रखता है और जब मामला ठंडा पड़ जाता है तो उसे रफा दफा कर दिया जाता है।

सत्ता से सीधे टकराने वाले अधिकारियों के अलावा किसी भ्रष्ट अफसर को सही सजा दिये जाने का कोई प्रमाण पूरे देश में मौजूद नहीं है। अगर वाकई सुधार करना है तो अफसरों की जिम्मेदारी तय होनी चाहिए और साथ में उसका दंड भी। वरना जेल में बंद अफसरों के परिवारों को अपनी जीवनशैली में कोई बदलाव नहीं महसूस होता और भ्रष्टाचार की यह गंगा निरंतर बहती रहती है। देश के दस बड़े घूसखोर अफसरों की संपत्ति जब्त हो तो अपने आप ही ढेर सारा सुधार दिख जाएगा। वरना फाइल पर विमर्श करें की संस्कृति चलती रहेगी।

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