घोषित आर्थिक पैकेज का एलान तो कोरोना संकट के काल में देश में छायी मंदी को देखते
हुए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस बीस लाख करोड़ के आर्थिक पैकेज की घोषणा की
थी, उसके कुछ हिस्सों को अमली जामा पहनाने का दावा किया गया है। लेकिन देश में
कोरोना संकट के और गहराने के बीच इस पैकेज से तेज हुई आर्थिक गतिविधियों का पता
नही चल पा रहा है। इसके बीच ही केंद्रीय वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण फिर से
जनता की आंखों से ओझल हैं।
घोषित आर्थिक पैकेज में जो मुद्दे शामिल थे, उनमें से गरीबों को राशन और जनधन
खाते में सीधे पैसा ट्रांसफर करने की भी उल्लेख था। यह दोनों काम बहुत कुशलता के साथ
किये गये हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो केंद्र सरकार के इन दो इंतजामों से देश के गरीबों का
बहुत भला हुआ है। अगर ऐसा नहीं हुआ होता तो कोरोना के मुकाबले अधिक मौत
भुखमरी से हो चुकी होती। लेकिन अब भी यह पर्याप्त इंतजाम नहीं माने जा सकते
क्योंकि कोरोना संकट अब तक नियंत्रण में नहीं आया है। हर रोज हजारों की संख्या में नये
मरीजों के पाये जाने की वजह से सरकारी खजाने पर इनके ईलाज का बोझ भी बढ़ता ही
जा रहा है। इसके बीच ही केंद्र सरकार द्वारा सरकारी उपक्रमों को निजी हाथों में सौंपने का
एलान भी होता जा रहा है। इससे और अधिक भ्रम की स्थिति उत्पन्न हो रही है। यूं तो
कोरोना संकट को देखते हुए दुनिया भर के सभी देश अपनी व्यापारिक और औद्योगिक
नीतियों पर पुनर्विचार कर रहे हैं। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। दिक्कत केवल इतनी
है कि भारत का रुख दोहरावभरा और कुछ हद तक विरोधाभासी है।
घोषित आर्थिक पैकेज में मेक इन इंडिया कहां हैं
एक ओर आत्मनिर्भर राहत पैकेज कुछ ऐसा संदेश देता है मानो हम वैश्वीकरण से मिलने
वाले तमाम लाभ से दूरी बना रहे हैं तो वहीं दूसरी ओर वित्त मंत्री समेत वरिष्ठ
अधिकारियों के देश को निवेश का केंद्र बनाने संबंधी विभिन्न बयान यह सुझाते हैं मानो
हम वैश्वीकरण की दिशा में नई प्रतिबद्धता के साथ आगे बढ़ रहे हैं। विश्व व्यापार संगठन
की एक रिपोर्ट के अनुसार देश के विनिर्माण आयात के पांचवें हिस्से पर सीमा शुल्क नहीं
लगता क्योंकि वह आयात ऐसे देशों से होता है जिनके साथ भारत ने मुक्त व्यापार
समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। यह चकित करने वाली बात नहीं है। चौंकाने वाली
वास्तविक बात यह है कि इसका स्तर ज्यादा नहीं है। चिंता करने वाली बात यह है कि
अधिकारियों ने इस रिपोर्ट से यह समझा है कि देश की व्यापार नीति की समीक्षा करने की
आवश्यकता है और इसके साथ ही मुक्त व्यापार समझौतों की भी। इसके बजाय इसे एक
सफल सौदेबाजी के रूप में देखे जाने की आवश्यकता है। चूंकि केवल पांचवें हिस्से पर
शुल्क नहीं लगाया जा रहा है, इससे यह संकेत निकलता है अब तक भारतीय आयात के
संदर्भ में मुक्त व्यापार समझौतों का दुरुपयोग करने की कोई भी कोशिश ज्यादा सफल
नहीं हो सकी है। लगातार ऐसी खबरें आ रही हैं कि भारत स्वयं को प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के
केंद्र के रूप में उन्नत करने के लिए प्रतिबद्ध है और वह मोबाइल फोन तथा विनिर्माण का
केंद्र बनने की मंशा रखता है।
भारत को इलेक्ट्रॉनिक्स में लक्ष्य तय करना होगा
इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में वर्ष 2025 तक 190 अरब डॉलर के उत्पादन का लक्ष्य तय किया गया
है। इसका 30 फीसदी हिस्सा वैश्विक मूल्य निर्माण में करने का लक्ष्य है। फिलहाल यह
आंकड़ा क्रमश: 29 अरब डॉलर और 5 फीसदी का है। यह लक्ष्य अत्यधिक महत्त्वाकांक्षी है
और इसे निर्यात को बढ़ावा देकर ही हासिल किया जा सकता है। परंतु निर्यात को
प्रोत्साहन और आयात को कम करना एक साथ नहीं हो सकता। भारत को और अधिक
व्यापार समझौतों की आवश्यकता है। केवल तभी वह अपने इलेक्ट्रॉनिक्स तथा अन्य
विनिर्माण निर्यात को बढ़ा पाएगा। इन तमाम समीकरणों के बीच देश की आर्थिक
गतिविधि को सबसे तेज गति प्रदान करने वाला कृषि क्षेत्र अभी फसल उपजने की
व्यवस्था में जुटा हुआ है। देश के छोटे कारोबारी जो इसे गति प्रदान कर सकते थे, उन्हें
अब तक इस आर्थिक पैकेज का अगर कोई लाभ मिला भी है तो देश की आर्थिक
गतिविधियों में उसका प्रभाव नजर नहीं आ रहा है। वैश्विक स्तर पर हम करना क्या
चाहते हैं, इसकी तस्वीर साफ नहीं है। एक तरफ मेक इन इंडिया की धूम है तो दूसरी तरफ
अपने ही प्रतिष्ठानों को बेचने की होड़ मची है। लेकिन कोरोना संकट ने यह दिखा दिया है
कि जिन संस्थानों को केंद्र सरकार ने नकारा समझा था वे ही कोरोना संकट के दौर में
भारत सरकार के सबसे अधिक काम आये हैं। ऐसे में आर्थिक पैकेज के माध्यम से केंद्र
अपने संसाधनों के और विकास के साथ साथ छोटे कारोबारियों तक घोषित आर्थिक पैकेज
से क्या कुछ फायदा पहुंचा पाता है, इस पर देश की अर्थव्यवस्था में सुधार टिकी हुई है।
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[…] भर में अप्रत्यक्ष रूप से हाई अलर्ट घोषित कर दी है। लेकिन आज […]