कश्मीर की सीमा पर जहां हमेशा ही छद्म युद्ध का खतरा मंडराता रहता है, वहां पिछले पांच
वर्षों में चीन ने भारत के इलाके में इतना कुछ बना लिया, इसका क्या अर्थ निकाला जाए।
ऐसा तो नहीं है कि भारतीय रक्षा में सैटेलाइट से निगरानी नहीं की जाती है। और अगर इस
निगरानी में भी चूक हुई है तो उसकी जिम्मेदारी किसकी है। दरअसल यह भारतीय
व्यवस्था की सबसे बड़ी खामी है कि हमारे यहां किसी भूल अथवा चूक पर किसी की
जिम्मेदारी तय नहीं होगी। पूरी व्यवस्था ही इस बात पर आधारित है कि सफलता का श्रेय
भले ही ले लिया जाए लेकिन चूक की जिम्मेदारी नहीं लेनी है। इसके पहले भी अनेकों बार
यह सच सामने आया है, जिसमें भीषण चूक की बड़ी कीमत चुकाने के बाद भी हमलोगों ने
उसके लिए जिम्मेदार व्यक्ति की पहचान करने से संकोच किया है। वैसे इसे संकोच नहीं
एक दूसरे की पीठ बचाने की कवायद भी कह सकते हैं। यह तकनीक ब्रिटिश शासकों की
थी और आजाद भारतवर्ष में भी यह व्यवस्था अब तक चली आ रही है। दरअसल यह
व्यवस्था सत्ता और सरकार को संरक्षण प्रदान करती है, इसलिए किसी भी सरकार में
तैनात ब्यूरोक्रेसी ने भी इसे सुधारने का काम नहीं किया। इसमें टीएन शेषन जैसे कुछ
अपवाद भी आये, जिन्होंने जो पहल कर दी तो वह सुधारवादी प्रक्रिया आज भी जारी है।
कुछ इसी तरीके से न्यायपालिका में भी सक्रियतावाद को चालू करने में कुछ खास
न्यायाधीशों ने अहम भूमिका निभायी थी। लेकिन असली मुद्दे पर लौटे तो कश्मीर सीमा
पर जब हमें लगातार पाकिस्तान के साथ जूझना पड़ता है तो क्या हमारी नजर उत्तर की
तरफ से हो रही घुसपैठ पर नहीं थी। या घुसपैठ की सूचना होने के बाद भी कूटनीतिक
कारणों से इस राष्ट्रहित को दरकिनार किया गया था।
कश्मीर सीमा पर नजरदारी के आधुनिक तरीके भी हैं
इस बात को समझने के लिए किसी विशेष तकनीकी ज्ञान की आवश्यकता भी नहीं है।
आम मोबाइल से भी इस बारे में बहुत कुछ जानकारी हासिल हो जाती है। ऐसे में भारतीय
सेना और भारतीय रक्षा पंक्ति की देखभाल के लिए तैनात विशेषज्ञ क्या कर रहे थे, यह
बड़ा सवाल बनकर उभरा है। गावलान के बारे में स्पष्ट है कि यह लद्दाख का हिस्सा है और
गावलान घाटी की खोज ही लद्दाख के गुलाम रसूल गालवान के नाम पर हुई है। इसलिए
चीन के तमाम दावे वैसे ही धरे के धरे रह जाते हैं क्योंकि प्रारंभ से ही यह इलाका भारतीय
भूभाग में शामिल रहा है। कश्मीर की सीमा पर चीन वीरान पड़े इलाकों में पहले कच्ची
और बाद में पक्की सड़कें बनाता है। वहां सैनिक छावनियों का निर्माण होता चला जाता है
और हमें खबर तक नहीं होती है, यह आधुनिक तकनीक के युग में संभव नहीं है। अब
कश्मीर सीमा के पास भारतीय रक्षा पंक्ति के अत्यंत मजबूत होने से चीन का पाकिस्तान
का कारोबार बाधित हो रहा है, इसे समझने के लिए भी रॉकेट साइंस के ज्ञान की
आवश्यकता नहीं है। हम कारगिल के अपने पुराने अनुभव से भी चीन की परेशानी को
समझ सकते हैं। लेकिन 1967 में जब नाथूला दर्रा के पास चीन ने 62 का युद्ध जीतने के
पांच साल बाद ऐसी कोशिश की थी तो भारतीय सेना ने न सिर्फ पलटकर जवाब दिया था
बल्कि एक छोटे से युद्द में चीन को पराजित कर उसे पीछे भी धकेल दिया था। ऐसे में
कश्मीर सीमा पर नजरदारी करने में चीन के मामले में हम वाकई चूक गये हैं अथवा इसे
जान बूझकर नजरअंदाज किया गया था, इस सवाल का उत्तर भी वर्तमान परिस्थितियों
में खोजा जाना चाहिए।
चीन के मसले पर पूर्व अनुभव को नजरअंदाज किया गया क्या
चीन के साथ लगने वाली पूरी सीमा पर नये सिरे से चौकसी बढ़ाने के साथ साथ अपने
सड़क परिवहन व्यवस्था को और बेहतर करने की जरूरत इस गावलान की घटना से
साबित कर दिया है। वरना इस छोर पर चीन का सबसे बड़ा रेगिस्तान है, जहां चीन ने कोई
काम नहीं किया है। फिर सिर्फ इसी कश्मीर वाले इलाकों के माध्यम से भारतीय भूभाग पर
मौका देखकर आगे बढ़ने की उसकी चाल किसी दीर्घकालीन योजना का हिस्सा है, इससे
इंकार तो कतई नही किया जा सकता है। कश्मीर सीमा पर चीन के साथ उलझे रहने के
बाद हमें पाकिस्तान पर भी पूरा ध्यान देना होगा। ऐसा इसलिए भी जरूरी है कि पूर्व के
अनुभव ही हमें यह बताते हैं कि जब जब हमने इसमें सुस्ती बरती है, पाकिस्तान ने अपनी
आंतरिक परेशानियों के वजह से ही सही लेकिन भारत पर छद्म युद्ध प्रारंभ किया है। अभी
कोरोना संकट के दौरान पाकिस्तान के अपने आंतरिक हालात भी ठीक नहीं हैं। दूसरी
तरफ कोरोना वायरस की वजह से चीन भी पूरी दुनिया की नजरों में संदिग्ध बना हुआ है।
ऐसे में हर सरकार के लिए ध्यान भटकाने का आसान तरीका युद्ध का माहौल बनाना ही है।
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