पढ़ाई के सारे संस्थान बंद हैं। फिलहाल उनके खुलने की भी कोई संभावना नहीं है।
अधिकांश शिक्षण संस्थान अपनी ऑनलाइन कक्षा के बच्चों को शिक्षा दे रहे हैं। दूसरी
तरफ बच्चे और उनके अभिभावक इस ऑनलाइन पढ़ाई से संतुष्ट नहीं है। आर्थिक संकट
के दौर में इस ऑनलाइन पढ़ाई का आर्थिक बोझ भी घरों के बजट को प्रभावित कर रहा है।
इसके बीच से ही यह विचार पनप रहा है कि जब दुनिया में कोरोना संकट की वजह से
अनेकों बदलाव आ रहे हैं तो क्या पढ़ाई और शिक्षा पद्धति में भी इसकी वजह से कोई
बदलाव आयेगा। यूं तो शिक्षा पद्धति में बदलाव के दूसरे लोग भी पक्षधर रहे हैं। अनेक
प्रमुख शिक्षाविद भी यह राय रखते हैं कि बच्चों को सिर्फ किताबी ज्ञान बांटने की सोच को
अब बदला जाना चाहिए। बच्चों को वैसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो बाद में भी उनके काम
आ सके। वरना अधिकांश किताबी ज्ञान का बाद की दुनिया में कोई उपयोग भी नहीं होता।
यह दरअसल मानव संसाधन की बर्बादी के सिवा कुछ भी नहीं है। पूरे विश्व के साथ भारत
में स्कूल से लेकर नामचीन विश्वविद्यालय इन दिनों ऑन लाईन पाठ्यक्रम में हाथ
आजमा रहे हैं । इससे यह वैश्विक प्रश्न पैदा हो गया है कि क्या विश्व के शीर्ष शैक्षणिक
संस्थानों द्वारा अचानक ऑनलाइन पढ़ाई का रुख करना एक अस्थायी परिवर्तन है।
पढ़ाई की स्थिति पूर्ववत कब होगी कोई नहीं जानता
स्थिति में सुधार होने के बाद वे दोबारा पारंपरिक परिसर आधारित शिक्षा पर लौट जाएंगे?
शायद ऐसा ही होगा। लंदन के प्रतिष्ठित टाइम्स हायर एजुकेशन ने दुनिया के 53 देशों के
प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों के 200 विद्वानों से इस विषय पर बात और एक विशद सर्वे
किया। इस सर्वे में यूरोप और अमेरिका के साथ चीन और भारत जैसे देश शामिल थे।
सवाल था: क्या आपके विश्वविद्यालय में अगले पांच वर्ष में पूर्णकालिक ऑनलाइन डिग्री
पाठ्यक्रम बढ़ेंगे? जवाब में ८५ प्रतिशत लोगों ने माना कि ऐसा होगा। एक और पहलू है
जहां विशुद्ध ऑनलाइन शिक्षा दुनिया भर में मौजूदा कॉलेज आधारित शिक्षा व्यवस्था को
प्रभावित कर सकती है। अमेरिका और ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों को वित्तीय रूप से
व्यवहार्य बने रहने के लिए विदेशी विद्यार्थियों, खासकर चीन और भारत के विद्यार्थियों
की आवश्यकता है। ये विश्वविद्यालय अपने छात्रों की तुलना में विदेशी छात्रों से कई गुना
अधिक शुल्क लेते हैं। अधिक शुल्क देने वाले विद्यार्थी अच्छी खासी तादाद में हैं। न्यूयॉर्क
के न्यू स्कूल में 31 प्रतिशत , फ्लोरिडा इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्रॉलजी में 28 प्रतिशत , न्यूयॉर्क
के रोचेस्टर विश्वविद्यालय में 27 प्रतिशत , कार्नेगी मेलन विश्वविद्यालय में 22 प्रतिशत
, बॉस्टन विश्वविद्यालय में 21 प्रतिशत विदेशी विद्यार्थी हैं। क्या ऐसे विदेशी विद्यार्थी
पाठ्यक्रम के पूरी तरह ऑनलाइन होने और अपने देश से ही पढ़ाई करने की सुविधा होने
बाद भी इन विश्वविद्यालयों में रुचि दिखाएंगे? ऐसे अधिक शुल्क देने वाले विद्यार्थियों
को गंवाने की आशंका से ही उस समय हड़कंप मचा जब ट्रंप प्रशासन ने यह घोषणा की कि
अमेरिका में रहने वाले जिन विदेशी छात्रों के पाठ्यक्रम ऑनलाइन हो चुके हैं उनका वीजा
रद्द कर दिया जाएगा और उन्हें तत्काल अमेरिका छोड़ना पडेगा।
अमेरिकी चुनाव पर भी असर डाल सकता है ट्रंप का फैसला
राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप के पिछड़ने की खबरों के बीच वीजा संबंधी प्रयोगों से
हो रहे राजनीतिक नफा नुकसान को भी तौला जा रहा है। अमेरिकी विश्वविद्यालयों ने
इतना दबाव बनाया कि ट्रंप प्रशासन को उक्त आदेश वापस लेना पड़ा। ऑनलाइन
शैक्षणिक पाठ्यक्रम प्लेटफॉर्म मसलन मूक (मैसिव ओपन ऑनलाइन कोर्स) काफी समय
से हैं और वेंचर कैपिटलिस्ट के पसंदीदा हैं। कोर्सेरा, खान अकादमी और यूडीमाई आदि
अमेरिका के कुछ उदाहरण हैं। जबकि चीन में आधा दर्जन से अधिक सूचीबद्ध एडटेक
साइट हैं। ऑनलाइन टेस्ट की तैयारी कराने वाली वेबसाइट भारत में भी बच्चों को कोचिंग
दे रही हैं और यह कारोबार खूब फलफूल रहा है। बायजू, टॉपर और वेदांतु आदि इसके
उदाहरण हैं और अनुमान है कि तीन अरब डॉलर से अधिक की वेंचर फंडिंग इस क्षेत्र को
मिल चुकी है। एक और बड़ा सवाल है क्या ऑनलाइन पढ़ाई हर विषय और पाठ्यक्रम में
अनिवार्य हो जाएगी या चुनिंदा में? प्रतिक्रिया देने वालों ने कहा कि कुछ विषयों की
ऑनलाइन पढ़ाई करना सबसे मुश्किल है। एक ओर जहां हम सभी इस बात को लेकर
चिंतित हैं कि कोविड-19 के कारण लागू लॉकडाउन तथा उच्च शिक्षा को को ऑनलाइन
करना उसके भविष्य को किस प्रकार प्रभावित करेगा, वहीं इस सवाल को भी दरकिनार
नहीं किया जा सकता है कि क्या हम कुछ ज्यादा ही हो हल्ला कर रहे हैं और यह महामारी
जल्दी समाप्त हो जाएगी तथा जीवन एक बार फिर पुराने ढर्रे पर लौट जाएगा? भविष्य के
गर्भ में इन सवालों का उत्तर हैं, जो समय के साथ ही सामने आयेगा कि पढ़ाई और शिक्षा
पद्धति में आगे क्या कुछ होता है।
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