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क्या वाकई हम सिर्फ डंडे की भाषा समझते हैं
डॉ एच डी शरण
रांचीः इस बार हम एक बार फिर उस स्थिति में पहुंच चुके हैं, जहां आज से चार महीने
पहले थे। जिस गति से कोविड के रोगी रोज बढ़ रहे हैं, उससे यही प्रतीत होता है कि एक
और वर्ष कोरोना की भेंट चढ़ने जा रहा है। बिखरे परिवार जुड़ने की चेष्टा कर ही रहे थे, नई
नौकरियां युवकों को उत्साहित करती दिख रहीं थी ,देश लड़खड़ाते हुए एक बार फिर पटरी
पर लौट रहा था, उत्सवों में नया उत्साह दिखना प्रारंभ हो रहा था, अंतरराष्ट्रीय आवागमन
प्रारंभ हो रहा था। एकाएक इस अजगर ने पलट कर वार किया और फिर हमें अपने पाश में
जकड़ लिया। आश्चर्य नहीं होना चाहिए यदि इस बार कुछ ही दिनों में रोज नये मिलने
वाले रोगियों की संख्या की दृष्टि से हम अमरीका को पीछे छोड़ दें। अगर रोगी यूंही बढ़ते
रहे तो ठीक एक वर्ष के पश्चात सरकार को एक बार फिर पूर्ण लाकडाऊन के लिए मजबूर
होना पड़ सकता है। और यदि यह हुआ तो हमारी अर्थव्यवस्था पूरी तरह से चौपट हो
जायेगी। बेरोजगारी युवाओं की जिंदगियां बर्बाद कर देंगीं।
एक क्षण को रुकिए और गंभीरता से सोचिए
ऐसा क्यों हुआ? सरकार को दोष ना दीजिएगा। व्यक्तिगत रूप से इस देश के प्रधानमंत्री से
लेकर एक मजदूर या किसान और कालेज के प्रोफेसर से लेकर उद्योगपति तक हर
नागरिक जिम्मेदार है इस त्रासदी के लिए। हम सब। एक प्रधानमंत्री के रूप में उनकी
भूमिका कुछ और रही है लेकिन जब वे किसी राजनैतिक रैली को संबोधित करते हैं तो
सामने हजारों की संख्या में बिना मास्क लगाये बैठे लोगों पर उनकी नजर नहीं जाती।
लाखों की संख्या में लोग बिना मास्क और बिना दूरी बनाये धार्मिक अनुष्ठानों में एकत्रित
होते हैं, कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि आस्था का सवाल उठ खड़ा होता है। सिनेमाघरों और
माॅल में भीड़ बढ़ रही है। एक वर्ष से खुद को दबा कर रखने के बाद पारिवारिक समारोह में
लोग पूरे जोश और बिना मास्क के मिलने लगे हैं। सोच यह है कि ये तो परिवार के सदस्य
हैं इन्हें कोरोना कैसे हो सकता है? कॉलेज और छात्रावास खुल रहे हैं। बिना टीका लिये
बच्चों को छात्रावास में आने को मजबूर किया जा रहा है। शिक्षा आवश्यक है लेकिन अगर
ऐसा है तो 18 वर्ष से अधिक वय के छात्रों को टीकाकरण में प्राथमिकता दे कर फिर उन्हें
छात्रावास बुलाया जाना चाहिए था। एमआईटी मणिपाल जैसी संस्था को कोरोना संक्रमण
क्षेत्र घोषित करने की नौबत आ ही गई।
इस बार भी बचाव के आधे अधूरे उपाय हो रहे हैं
आधे अधूरे उपाय किये जा रहे हैं, बिना किसी वैज्ञानिक आधार के। रात का कर्फ्यू और
सप्ताहांत की तालाबंदी वाइरस को रोकने में असमर्थ हैं, हर वैज्ञानिक यह कह रहा है
लेकिन सरकारें ये उपाय लागू कर हाथ धो ले रहीं हैं।
मुझे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ये पंक्तियां याद आ रहीं हैं,
गांधी के शिष्य हम कोई अनुशासन
कोई कानून नहीं मानते
दरअसल हम बुरी तरह स्वतंत्र हैं।
गांधी को पूरी तरह भूला कर हम उनके असहयोग आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिश
कर रहे हैं।
हम सिर्फ डंडे की ही भाषा समझते हैं। तो फिर यही सही। डंडे के प्रयोग के लिए इससे
अधिक जायज कारण हो नहीं सकता। नागरिकों को मास्क पहनने को विवश करें।
शारीरिक दूरी बनाए रखने के उपाय किये जायें। टीकाकरण की गति बढ़ाई जाये और उम्र
सीमा में छूट दी जाये। दूसरे देशों को टीका भेजने के पहले इस बार अपने देशवासियों की
ज़रूरतों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
इस बार भी हम नहीं चेते तो आने वाली पीढ़ियां हम पर उंगलियां उठायेंगी, सवाल करेंगीं
हमसे कि हम इतने गैर जिम्मेदार क्यों थे? वसीम बरेलवी की ये पंक्तियां बार बार मेरे
दिलो-दिमाग पर हथौड़े की तरह चोट करती है
आंखों को मून्द लेने से ख़तरा ना जायेगा
वो देखना पड़ेगा जो देखा ना जायेगा।
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