समय की मांग है कि हम अपनी सारी पुरानी सोच को दरकिनार कर नये सिरे से खास तौर
पर देश की अर्थव्यवस्था को नये सांचे में ढालने का काम प्रारंभ करें। कोरोना काल के पूर्व
जो कुछ भी चल रहा था, वह सारी परिस्थितियां अब पूरी तरह बदल चुकी है। लोगों की
आर्थिक हैसियत का पैमाना भी कोरोना की मार ने बदल दिया है। इसलिए अब आम
आदमी को सोच के केंद्र में रखते हुए नये सिरे से आर्थिक योजनाएं बनायी जानी चाहिए।
इससे पूर्व औद्योगिक विकास से रोजगार के सृजन के तर्क का काफी जोर शोर से प्रचार
किया गया था। लेकिन बैंकों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति के लिए जिम्मेदार लोगों की
पहचान धीरे धीरे सामने आता जा रहा है। इससे यह स्पष्ट हो रहा है कि जिस तर्क के
आधार पर औद्योगिक विकास में अधिकाधिक धन लगाने की सोच को बढावा दिया गया
था दरअसल वह महज एक धोखा था। गलवान के मुद्दे पर हम चीन को सुबह शाम कितना
ही क्यों न कोसते रहें, हमें उसके आर्थिक मॉडल और कुटीर तथा लघु उद्योग के जरिए देश
के विकास का लोहा मानना पड़ेगा और उसी रास्ते पर चलना पड़ेगा। बड़े कारखाने जहां हैं,
वहां से उन्हें अगले दो दशक तक अपने बलबूते पर चलने को छोड़ देना चाहिए। इससे
स्पष्ट हो जाएगा कि इन कारखानों से देश का भला हो रहा है अथवा जनता का पैसा इन
उद्योगों में ढालकर हम देश को पतन के रास्ते पर तो नहीं ले जा रहे थे। अगर इस पर रोक
नहीं लगी तो नीरव मोदी, मेहूल चौकसे और विजय माल्या का क्रम आगे भी जारी रहेगा।
समय की मांग कर वंचकों पर कार्रवाई भी है
लोग देश से भाग जाएं, यह बड़ी बात नहीं है। देश का पैसा इनलोगों के साथ बाहर चला
जाए, यह राष्ट्रीय चिंता का विषय है। लेकिन यह भी तय है कि इनके नाम पर डूबने वाला
जनता के पैसे का एक बड़ा हिस्सा राजनीतिक दलों को भी मिला होगा। हमें यानी
भारतवर्ष को अब सब कुछ नये सिरे से सोचने समझने की जरूरत है। पिछले छह वर्षों से
मोदी सरकार का रुख यही रहा है कि व्यापार घाटे को नियंत्रित किया जाए और देश में
चीनी निवेश व प्रौद्योगिकी को आकर्षित किया जाए। सब बखूबी जानते हैं कि नई दिल्ली
और बीजिंग किस तरह एक-दूसरे पर निर्भर हैं। अब हमें ऐसा अध्ययन करना चाहिए कि
किस तरह हम लागत से अधिक फायदा कमा सकते हैं, और इसका क्या असर पड़ेगा। हमें
सबसे पहले चीन की 2025 योजना की तरह प्रभावी औद्योगिकीकरण की रूपरेखा तैयार
करनी चाहिए, और फिर पता करना चाहिए कि जिस तरह से चीन की सुधार प्रक्रिया में
अमेरिका उत्प्रेरक बना था, उस तरह वह हमारे कैसे काम आ सकता है? विशेषकर
डिजिटल क्षेत्रों में अमेरिका और चीन में जो मुकाबला चल रहा है, उससे एक अन्य
नीतिगत चुनौती हमारे सामने है। एक डिजिटल सुपरपावर को छोड़कर दूसरे के पाले में
जाने से हमें बचना होगा।
भारत को अपने लिए खेमाबंदी से बचना चाहिए
आखिरकार, चीनी और अमेरिकी कंपनियां समान धरातल पर हैं। दोनों से समान रूप से
हमारी डाटा संप्रभुता को खतरा है। आयातित सॉफ्टवेयर और हार्डवेयर के लिए भी हमारी
इन दोनों देशों पर निर्भरता है और दोनों ही हमारी स्थानीय क्षमताओं पर समान रूप से
चोट करते हैं। लिहाजा, अपना बहुमूल्य संसाधन उन्हें सौंपने से पहले, हमें घरेलू नवाचार
को बढ़ावा देना चाहिए। एक अन्य विषय इंडो-पैसिफिक के साथ भारत का रिश्ता है।
क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरईसीपी) पर हुआ फैसला बताता है कि भारत
व्यापार के दरवाजे बंद करने को लेकर जल्दबाजी में नहीं है, क्योंकि हमारी घरेलू
अर्थव्यवस्था अभी कमजोर है और कई तरह की संरचनात्मक समस्याएं हैं।
स्थानीय स्तर पर भारत बेशक चीजों को व्यवस्थित करना शुरू करे, पर अमेरिका-चीन के
बिगड़ते रिश्ते के आधार पर हमारी क्षेत्रीय भू-आर्थिकी नहीं तैयार होनी चाहिए। सच यही है
कि चीन और अमेरिका के आर्थिक रिश्तों में गिरावट चीन-एशिया की परस्पर निर्भरता को
कम नहीं करेगी। इसकी झलक हाल के आंकड़ों में दिखती है। पिछले साल आसियान
उसके साथ द्विपक्षीय कारोबार करने वाला दूसरा बड़ा सहयोगी बन गया है। यह स्थान
पहले अमेरिका का था। इस साल तो अब तक आसियान यूरोपीय संघ को भी पीछे छोड़
चीन से सबसे ज्यादा कारोबार करने लगा है। स्पष्ट है, हमें अमेरिकी सियासत की
संभावनाओं पर चिंतन करने की बजाय हमें भू-आर्थिकी और क्षेत्र में विकसित होने वाले
रिश्तों को लेकर रणनीति बनानी चाहिए, जिससे आगे के अवसर पैदा हो सकें। बेशक चीन
के साथ संबंध आगे और जटिल रहने के कयास हैं। भारत के पड़ोसी देश सहित कई
एशियाई देश अमेरिका, चीन, जापान और यूरोप की प्रौद्योगिकी व पूंजी का लाभ उठाने के
लिए उदार रणनीति अपनाएंगे। ऐसे में, कुछ अलग करने की कोशिश करके हम प्रतिस्पर्धी
होने का असली लाभ उठा सकेंगे ।
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[…] विधि के और विकसित होने के बाद अनेक कल कारखानों में […]