राष्ट्रभाषा के इस सवाल से पहले वर्तमान कोरोना संकट से उपजी परिस्थितियों को समझ
लेने की जरूरत है। अचानक से पूरे देश में लॉक डाउन लगा तो स्वाभाविक तौर पर सारे
शिक्षण संस्थान भी बंद हो गये। अब स्कूल-कॉलेज बंद होने के बीच ही ऑनलाइन पढ़ाई
की लोकप्रियता को बढ़ाने का प्रयास हो रहा है। पहले भी लोग ऑनलाइन पढ़ाई किया
करते थे। सिर्फ कोरोना के वैश्विक संकट से इस पढ़ाई में समय खपाने वालों संख्या में
काफी ईजाफा कर दिया है। लेकिन कभी सोचा है कि इस पद्धति के बदलाव से हमारी
राष्ट्रभाषा को छोड़ दें तो हमारी सामान्य बोलचाल की भाषा में क्या कुछ बदलाव हो रहा
है। अपने नजदीक के बच्चों की आपसी बात चीत को ध्यान से सुने और समझने की
कोशिश करें। आपको पता चल जाएगा कि वे ऐसे शब्दों का भी इस्तेमाल कर रहे हैं जो
शायद उनकी अपनी मातृभाषा के शब्द नहीं हैं। ऐसे में नई शिक्षा नीति में राष्ट्रभाषा के
परिभाषित नहीं होने की वजह से यह सवाल स्वाभाविक है कि कोरोना जैसे वैश्विक संकट
के दौर में हमारी भाषा पर इसका क्या कुछ प्रभाव पड़ता जा रहा है। हिंदी और ऊर्दू के
विवाद के संदर्भ में प्रसिद्ध शायर जावेद अख्तर ने एक बात कही थी कि जब तक बात
समझ में आ रही है तो वह हिंदी है और जब किसी शेर का कोई शब्द समझ में नहीं आये तो
वह ऊर्दू समझा जाता है। अनेक विदेशज शब्द कुछ इस तरीके से हमारी बोलचाल की भाषा
में शामिल हो चुके हैं कि हमें पता ही नहीं चलता कि हम किसी विदेशी भाषा के किसी शब्द
का इस्तेमाल कर रहे हैं।
राष्ट्रभाषा नहीं होगी तो अगली पीढ़ी क्या सीखेंगी
इसलिए यह सोचिए कि इस दौर से गुजरने वाले बच्चे जो कुछ पढ़ लिख रहे हैं, वे अगले दो
दशकों के बाद किस किस्म की भाषा का इस्तेमाल कर रहे होंगे। ऑनलाइन पढ़ाई और
साइबर की आभाषी दुनिया में आपसी संवाद के दौर में उनकी अपनी मातृभाषा की कहीं
खोती चली जा रही है। पता नहीं आप इस बात को कैसे लेते हैं कि मराठी भाषी विद्यालयों
में छात्र नहीं आ रहे हैं. क्योंकि अंग्रेजी की मांग बढ़ रही है।
नीति नियंताओं में से किसी ने नहीं सोचा कि 14 करोड़ प्रवासी श्रमिकों की संतानों को
उनकी मातृभाषा में कैसे पढ़ाया जाएगा? दिल्ली, बेंगलूरु और मुंबई जैसे शहरों में आधी से
अधिक आबादी ऐसे लोगों की है जिनकी मातृभाषा हिंदी, कन्नड़ या मराठी नहीं है। ऐसे में
मातृभाषा को लेकर सपाट दलील जटिल हो सकती है। दिल्ली को अपने विद्यालयों में
कितनी मातृभाषाएं पढ़ानी चाहिए: बांग्ला, मराठी, तमिल, गुजराती…? हिंदी और पंजाबी
तो हैं ही। उर्दू को भी न भूलें। आंध्र प्रदेश सरकार ने शायद अपने विद्यालयों में शिक्षण का
प्राथमिक माध्यम अंग्रेजी रखकर गलती की हो जबकि जम्मू कश्मीर बहुत पहले ऐसा कर
चुका था। इस नई नीति में शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल कहते है कि ‘एक ऐसी शिक्षा नीति
की आवश्यकता है जिसमें इतना लचीलापन हो कि वह बदलती परिस्थितियों के साथ ढल
सके।
समय के साथ बदलना भी शिक्षा का मूल मकसद हो
इसमें प्रयोगधर्मिता और नवाचार के महत्त्व को रेखांकित किया जाए…इस समय
इकलौती सबसे जरूरी बात है मौजूदा व्यवस्था की जड़ता से निजात।’ इसके अलावा इस
बात पर भी जोर दिया गया है कि ‘कार्यानुभव (जिसमें भौतिक श्रम, उत्पादन अनुभव
आदि शामिल हों) और सामाजिक सेवाओं को सभी स्तरों पर सामान्य शिक्षण का
अनिवार्य अंग बनाया जाए।’ सबसे आखिर में कहा गया कि ‘नैतिक शिक्षा और सामाजिक
उत्तरदायित्व की भावना को शामिल करने पर जोर दिया जाए।’
श्री पोखरियाल तो कुछ अभी कह रहे हैं वह डीएस कोठारी ने वर्ष 1966 में कही थी। उन्होंने
शिक्षा आयोग की रिपोर्टम यह कहा था लेकिन सिफारिशों पर पूरी तरह अमल होने के
पहले ही शिक्षा का व्यवसायीकरण हमारी व्यवस्था पर हावी होता चला गया। यह नई
राष्ट्रीय शिक्षा नीति तो , कोठारी आयोग की रिपोर्ट से भी अधिक महत्त्वाकांक्षी है। इसमें
कई सकारात्मक बातें शामिल हैं। मसलन शुरुआती शिक्षण में मातृभाषा पर जोर,
विद्यालयीन शिक्षा से पहले की पढ़ाई को प्रमुख शैक्षणिक व्यवस्था में शामिल करना और
पाठ्यक्रम के ढांचे में लचीलापन। इनकी सफलता 30 से अधिक राज्य और केंद्र शासित
प्रदेशों की प्रतिक्रिया पर निर्भर है। यह इस बात पर भी निर्भर होगा कि 12 लाख से अधिक
आंगनवाडिय़ों से नए ढंग से कैसे काम लिया जाता है और 15 लाख विद्यालय इसे कैसे
अपनाते हैं। बहरहाल जब किसी नीतिगत दस्तावेज में समग्रता और विविध विषयों जैसे
शब्दों की भरमार है तो आशंका पैदा होती है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी के प्रश्न पर विचार
करें। वरना आज के दौर में स्कूलों में भी इ या ई अथवा उ या ऊ की मात्रा को शिक्षक छोटी
इ और बड़ी ई या छोटी उ या बड़ी ऊ की मात्रा पढ़ा रहे हैं। ऐसे में राष्ट्रभाषा का सवाल
प्रासंगिक है।
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