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हम सिर्फ नीला और लाल के बीच का देख पाते हैं
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वैज्ञानिकों ने विकसित की है कैमरे में नई तकनीक
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इस विधि से गैसों को भी देख पाना संभल हो जाएगा
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वैज्ञानिकों ने इसके लिए सस्ती चिप भी तैयार कर ली है
राष्ट्रीय खबर
रांचीः इंसानी आंखों को अब भी कई रंग उनके मूल स्वरुप में नहीं दिखते हैं। यह बात
वैज्ञानिक तौर पर पहले ही प्रमाणित हो चुकी है। यहां तक कि पृथ्वी पर पाये जाने वाले
जीव जंतु और पक्षियों के देखने का रंग विभेद भी अलग अलग होता है। तरंगों के अंतर की
वजह से कई रंग हमारी आंखों की पकड़ में नहीं आते हैं। उन्हें हम किसी दूसरे रंग के तौर
पर देख पाते हैं जबकि कुछ अन्य प्राणी इसे दूसरे तरीके से देखते हैं। इसी कमी को दूर
करने में वैज्ञानिकों ने सफलता अर्जित की है। अब वह विधि विकसित की गयी है, जिसकी
बदौलत ऐसे रंग भी देखे जा सकेंगे। इसके लिए वैज्ञानिकों ने खास किस्म का कैमरा
तकनीक भी तैयार कर लिया है।
यह काम इजरायल के तेल अबीब विश्वविद्यालय में किया गया हैं। दरअसल कैंसर की
पहचान करने के लिए इस तकनीक पर काम चल रहा था। शोध से जुड़े वैज्ञानिक यह मान
रहे थे कि कैंसर कोशिकाओँ के विस्तार को पकड़ने के साथ साथ कंप्यूटर गेम और सुरक्षा
के मामले में भी यह तकनीक कारगर साबित होगी। इसमें मिली सफलता के आधार पर
अब पता चला है कि इस विधि के कैमरे वैसे रंगों को भी देख पा रहे हैं जो आम तौर पर
इंसान की आंखों से नजर नहीं आते हैं। यहां तक कि कई कैमरे भी इन रंगों के अंतर को
नहीं पकड़ पाते हैं। इसकी मदद से अब वायुमंडल में मौजूद गैसों की पहचान करना भी
शायद संभव हो जाएगा। खास कर हाईड्रोजन, कॉर्बन और सोडियम जैसे गैसों को हम सही
तरीके से वायुमंडल में देख भी पायेंगे। इन गैसों को वर्तमान में हम हवा में नहीं देख पाते हैं
जबकि इंफ्रारेड में वे अलग अलग नजर आते हैं।
इंसानी आंखों से हम गैस या अल्ट्रवायोलेट किरणें नहीं देख पाते
शोध की सफलता के बाद ऐसा माना जा रहा है कि जिस मकसद से इस तकनीक पर काम
हुआ था, उसके अलावा खगोल विज्ञान में भी इस कैमरा तकनीक का बहुत फायदा मिलने
जा रहा है। इसके बारे में पिछले महीने के लेजर और फोटोनिक्स रिव्यूज में शोध प्रबंध
प्रकाशित किया गया है। यह सारा अनुसंधान विश्वविद्याय के डॉ मिशेल म्रेजन, योनी
एरलीच, डॉ एसाफ लेभानोन और प्रो हैइम सूचोवस्की के द्वारा किया गया है। यह सभी
तेल अबीब विश्वविद्यालय के फिजिक्स ऑफ कंडेस्ड मैटेरियल विभाग से जुड़े हुए हैं।
शोध प्रबंध में बताया गया है कि इंसान की आंख चार सौ नैनोमीटर से सात सौ नैनोमीटर
तक के तरंग को ही पकड़ पाती है। लेकिन यह तरंग सिर्फ नीले और लाल के बीच का है।
वास्तविक इलेक्ट्रो मैग्नेटिक तरंगों में यह बहुत छोटा सा हिस्सा है। यानी बहुत सारा
हमारी आंखों से ओझल रह जाता है। हम पहले से ही इस बात को जानते हैं कि इंसानी
आंखों में इंफ्रारेड किरणें नजर नहीं आती हैं। इसी तरह अल्ट्रा वॉयोलेट किरणों को भी
इंसानी आंखें नहीं देख पाती है। लेकिन वे मौजूद होते हैं। अन्य तरंग वाले रंगों को पकड़ने
की इस विधि के सफल होने के बाद हम बहुत कुछ नये तरीके से देख पायेंगे, जो अब तक
हमारी आंखों से ओझल था।
वर्तमान इंफ्रा रेड तकनीक के मुकाबले यह बहुत सस्ती विधि
वर्तमान में जो इंफ्रा रेड तकनीक हमारे पास मौजूद है, वह बहुत खर्चीली है और कई रंगों
का वह सही विश्लेषण भी नहीं कर पाती है। इसका इस्तेमाल अभी मेडिकल जगत में होता
है। लेकिन यह पूरी प्रक्रिया आम आदमी के काम की नहीं होती क्योंकि उन रंगों के
विश्लेषण का काम भी विशेषज्ञों का होता है। अब यह कठिनाई दूर होने वाली है। तेब
अबीब विश्वविद्यालय ने इसके लिए एक सस्ती और कारगर तकनीक विकसित करने के
साथ साथ उसके लिए एक इलेक्ट्रॉनिक चिप भी बनायी है। इस चिप को किसी भी
सामान्य कैमरे में ही लगाया जा सकता है। इसकी मदद से वैसे रंग भी तुरंत नजर आने
लगते हैं, जो अब तक हमारी आंखों से ओझल ही रहे हैं। अब तो किसी पौधे से निकलने
वाले गैसों से लेकर अंतरिक्ष के किसी खास इलाके में मौजूद गैसों की भी पहचान करना
आसान हो जाएगा। यहां तक कि जासूसी उपग्रह भी कहां विस्फोटक अथवा यूरेनियम रखे
हुए हैं, उनकी पहचान कर पायेंगे। इस विधि का पेटेंट लेने के बाद वे इसके व्यापारिक
उत्पादन के लिए कई कंपनियों के संपर्क में हैं।
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