सुप्रीम कोर्ट की चिंता जायज है। किसान आंदोलन के इतना लंबा खींचने के बाद भी अगर
इस मुद्दे पर समाधान नहीं निकल पा रहा है तो यह सहज प्रश्न है कि आखिर केंद्र सरकार
इतने विरोध के बाद भी तीनों कृषि बिलों का लागू करने पर क्यों अड़ी हुई है। सामान्य
प्रक्रिया के तहत अगर यह बात होती तो वर्तमान कृषि कानूनों को किसी खास समय सीमा
तक के लिए स्थगित करते हुए किसान यूनियनों से निर्धारित समय सीमा के भीतर चर्चा
कर संशोधित कानून लाने का अधिकार को सरकार के पास है। सवाल इसलिए महत्वपूर्ण
बन रहा है क्योंकि कानून में उल्लेखित मुद्दों और प्रावधानों की लाइनों के बीच जो कुछ
अलिखित है, उसे किसान आंदोलनकारी शायद पढ़ पा रहे हैं। दिल्ली सीमा पर प्रदर्शन कर
रहे किसानों ने आंदोलन में शहीद हुए 50 से अधिक साथियों को याद करते हुए साल 2020
को अलविदा कहा। आंदोलन में हिस्सा लेने वाले सभी आंदोलनकारी जानते हैं कि वे केंद्र
सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट की चिंता इसलिए
भी स्वाभाविक है क्योंकि यह आंदोलन सिर्फ कृषि के मुनाफे से जुड़ी हुई बात भर नहीं है।
यह आंदोलन किसी न किसी रुप में शहरों द्वारा गांवों को निगल लेने की भीषण आर्थिक
होड़ को भी प्रदर्शित करती है, जिससे भारतीय समाज का मूल ढांचा हाल के दो दशकों में
तेजी से क्षरण का शिकार हो चुका है। आंदोलन में शामिल लोग भी जान रहे हैं कि वे
दरअसल कई दशकों से चले आ रहे शहरीकरण, कृषि क्षेत्र में बड़ी कंपनियों की हिस्सेदारी,
जैव विविधता को होने वाले नुकसान और खाद्य लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।
सुप्रीम कोर्ट की चिंता बहुआयामी संकट पर जायज है
हरित क्रांति की भूमि पंजाब ने भी कई चुनौतियां देखी हैं, जिसमें जमीन में बढ़ते जहरीले
अवयव, कैंसर की दवाइयों की बढ़ती मात्रा, जल स्तर का नीचे जाना और फसलों के
विविधीकरण के लिए बनाई गई सरकारी नीतियों का विफल रहना शामिल है। इस प्रदर्शन
को पंजाब में 100 से ज्यादा तथा दिल्ली सीमा पर 40 दिन हो चुके हैं और युवा किसान
सरकार पर भरोसा करने का अपना धैर्य खो रहे हैं। उनका मानना है कि सरकार
सकारात्मक नीयत के साथ बातचीत नहीं कर रही है जिससे किसानों के बीच दरार पैदा
करने का प्रयास हो रहा है। वे कुछ प्रमुख किसान संगठनों के साथ अलग से समानांतर
बातचीत किए जाने की नीयत पर सवाल उठा रहे हैं। उनका कहना है कि प्रदर्शनकारियों
पर मामला दर्ज कराकर उन्हें उकसाने एवं इस आंदोलन को हिंसा में बदलने का प्रयास
किया जा रहा है। इस आंदोलन में 472 से भी अधिक संगठन शामिल हैं जो इसे एक बहुत
बड़े आंदोलन का स्वरूप देते हैं। इनमें से 32 प्रमुख संगठन आंदोलन की अगुआई कर रहे हैं
तो वहीं 40 के करीब संगठन सरकार के साथ बातचीत में शामिल हैं। प्रत्येक संगठन में
हजारों की संख्या में छोटे से लेकर बड़े किसान शामिल हैं। इस आंदोलन में पंजाबी प्रवासी
न सिर्फ सामान देकर आंदोलन को आगे बढ़ा रहे हैं बल्कि कम संख्या में ही सही, लेकिन
प्रत्यक्ष तौर पर भी आंदोलन को मजबूत कर रहे हैं। शताब्दियों पूर्व उत्तरी अमेरिका गए
पंजाबी किसानों ने वहां के किसानों की बदलती स्थिति को करीब से देखा है और उनका
मानना है कि हालिया तीन कृषि कानून देश में एक विफल मॉडल की शुरूआत करेंगे।
शहरी और ग्रामीण विरोधाभाष को भी रेखांकित करता आंदोलन
उनके अनुसार, नीति निर्माताओं के बीच शहरी-ग्रामीण विरोधाभास काफी अधिक देखा
जाता है। उदाहरण के लिए एक किसान बताते हैं कि पिछले तीन सालों में सरकार द्वारा
फसल विविधीकरण पर केवल 45 करोड़ रुपये खर्च किए गए हैं जबकि उन्होंने दर्जनों
फ्लाईओवर, प्रतिमाओं और राष्ट्रीय राजधानी में प्रस्तावित सेंट्रल विस्टा के लिए अरबों
रुपये खर्च कर दिए। गौर करने वाली बात यह भी है कि वहां आंदोलन कर रहे लोग
खासकर युवा मुख्यधारा के अखबारों एवं समाचार चैनलों में आंदोलन के खिलाफ सरकार
द्वारा दिए जा रहे संदेश का विरोध भी कर रहे हैं और इसके लिए मुख्यत: सोशल मीडिया
का सहारा लिया जा रहा है। यहां भी, प्रवासी सिख अपनी अहम भूमिका निभा रहे हैं। ऐसी
स्थिति में अगर शीर्ष अदालत की चिंता उभरकर सामने आ रही है तो यह केंद्र सरकार के
लिए भी एक स्पष्ट संदेश है कि अगर सरकार ने पहले की तरह इसे टालने की कोशिश की
तो अधिक दिनों तक सुप्रीम कोर्ट की चिंता सिर्फ बातों और बयानों तक सीमित नहीं
रहेगा। सुप्रीम कोर्ट वैसे कठोर और संवैधानिक संकट जैसी परिस्थिति से बचने के लिए ही
सुझाव देकर मामले को निपटाने का परोक्ष निर्देश दे रही है।
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