राजनीतिक दांव पेंच का खेल कुछ ऐसे परिणाम सामने आ रहे हैं, जिनमें हर ऐसे विवाद
का फैसला अदालत को करना पड़ रहा है। वर्तमान संदर्भ में राजस्थान की राजनीति इसका
जीता जागता प्रमाण है। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उप मुख्यमंत्री सचिन पायलट के
बीच के विवाद को ऐसा हवा दिया गया है कि यह मामला अब अदालत की चौखट तक जा
पहुंचा है। इस किस्म के राजनीतिक दांव पेंच को सुलझाने में न्यायपालिका की दुर्गति हो
रही है। इस किस्म के दांव पेंच से राजनीति के साथ साथ न्यायपालिका पर भी काम का
फालतू बोझ पड़ रहा है। इस बात को राजनीतिक दांव पेंच चलने वालों को ही समझने की
जरूरत है कि वर्तमान में देश के विभिन्न अदालतों में करीब तीन करोड़ 15 लाख मामले
लंबित हैं। जाहिर सी बात है कि मामले लंबित होने का सीधा निष्कर्ष न्यायपालिका पर
काम का अतिरिक्त बोझ होना ही है । आंकड़े बताते हैं कि अकेले सुप्रीम कोर्ट में इस समय
करीब साठ हजार मामले लंबित है। इसी तरह सभी राज्यों के उच्च न्यायालयों और नीचे
के व्यवहार न्यायालयों में मामलों के लंबित होने की संख्या भी दिनोंदिन बढ़ती ही चली
जा रही है। ऐसी स्थिति में जिन मामलों का फैसला सदन के अंदर होना चाहिए, उनके लिए
भी अदालतों का दरवाजा खटखटाया जाना अदालतों के काम काज पर अतिरिक्त बोझ
लादने जैसा ही है।
संविधान में राजनीतिक सत्ता को ही सर्वोच्च माना गया है
भारतीय संविधान में जिस राजनीतिक सत्ता को सर्वोच्च माना गया है, अगर वह अपने
फैसले खुद नहीं ले पाये तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए भी एक दुर्भाग्यजनक स्थिति है।
इसे हम भारतीय लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा भी मान सकते हैं क्योंकि कानूनी
प्रावधानों के तहत अनेक ऐसे फैसले होते हैं, जो लोकतंत्र के लिहाज से सही नहीं होते।
इसलिए देश में जनता का फैसला सर्वोपरि है, इसे बनाये रखने के लिए जरूरी है कि जनता
द्वारा निर्वाचित जन प्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारियों को समझे और जो राजनीतिक
फैसले सदन के अंदर होने हैं, उन्हें न्यायपालिका के भरोसे ना छोड़ा जाए।
अदालत का फैसला चाहे कुछ भी हो लेकिन किसी सरकार के बहुमत में होने अथवा नहीं
होने का फैसला तो आखिर सदन के अंदर ही होना है। इस नीति सिद्धांत को कोई
न्यायपालिका बदल भी नहीं सकती। इसलिए जरूरी है कि राजनीतिक दांव पेंच के खेल से
सरकार बनाने और गिराने का यह गोरखधंधा बंद हो। जनता ने जिन्हें वोट देकर और
चुनाव जीताकर भेजा है, वे पांच वर्षों तक सदन के अंदर जनादेश का सम्मान करें। इसके
तहत पार्टी और निष्ठा बदलने के सवाल को भी न्यायपालिका के सुपुर्द करना उचित नहीं
होगा। जो आज किसी पार्टी के चुनाव चिह्न पर चुनाव जीतकर आये हैं, वे कल किसी और
दल में चले जाएं तो एक सवाल उनकी निष्ठा के साथ साथ जनादेश के अपमान का भी
होता है।
राजनीतिक दांव पेंच से आर्थिक संसाधन भी नष्ट होते हैं
जनादेश के सम्मान करने की चिंता अगर राजनीतिक दांव पेंच खेलने वालों को अधिक है
तो वे नये सिरे से संविधान में संशोधन कर जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने के कानून पर
भी प्रस्ताव पारित करे। यह स्पष्ट है कि निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की सुविधाओं में
कटौती अथवा निर्वाचित जनप्रतिनिधि को उसका कार्यकाल पूरा होने के पहले ही जनता
द्वारा वापस बुला लेने का अधिकार राजनीतिक दलों को फायदा नहीं दे सकता। जो
राजनीतिक दल अपने चंदे के विवरण का पारदर्शी करने की मांग पर एकजुट होकर उसका
विरोध करते हैं, उनके इस किस्म की पहल की उम्मीद इस परिस्थिति में तो नहीं की जा
सकती है। राजनीतिक दांव पेंच का खेल जारी रहने के बीच सभी सरकारों का यह दावा है
कि अदालतों पर काम का बोझ कम करने के लिए उपाय किये जा रहे हैं लेकिन अदालतों
तक सदन के भीतर का मामला न जाए, इस पर कोई विचार सामने नहीं आता। इसलिए
कानून और संविधान को अपने फायदे के हिसाब से परिभाषित करने की बीमारी को दूर
करने के लिए भी कठोर प्रबंध जनादेश के माध्यम से ही आ सकते हैं।
जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने की व्यवस्था हो तो सुधार होगा
यह काम अब एक दिन में भी पूरा नहीं हो सकता। जिस राजनीतिक व्यवस्था को धीरे धीरे
जंग लगा है, उसके जंग को छुड़ाने की कोशिशों के बदले बेहतर है कि जनता इसी संविधान
के ढांचे के अंदर नई राजनीतिक व्यवस्था को विकसित करें। धन पर आधारित चुनाव से
जनता ने अगर परहेज कर लिया तो अगले एक दशक में भी भारतीय राजनीति में बहुत
कुछ सुधार हो सकता है। लेकिन मतदान के लिए लालच रखने वालों से इस किस्म के
बदलाव की उम्मीद नहीं की जा सकती क्योंकि ऐसे मतदाता जाति वर्ग और वोट के पहले
मिलने वाले लाभ से प्रभावित हैं। उन्हें अगले पांच वर्षों की चिंता भी नहीं होती। अगर
वाकई मतदाता ने इस बारे में सोचकर फैसला सुनाना प्रारंभ कर दिया तो राजनीतिक दांव
पेंच और न्यायपालिका पर इसका बोझ अपने आप ही कम हो जाएगा।
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[…] चले आ रहे संघर्ष और अन्य राजनीतिक एवं सामाजिक कारणों से भी यह […]
[…] कहीं चर्चा तक नहीं होती है। यह भारतीय राजनीति का नैतिक पतन है […]