आर्थिक पैकेज का पूरे देश की आम जनता को सबसे अधिक इंतजार हैं। इसमें देर नहीं हो।
आर्थिक पैकेज की घोषणा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में की थी।
उसके बाद केंद्रीय वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण ने इस क्रम में क्या कुछ चरणबद्ध
तरीके से किया जा रहा है, उसकी जानकारी भी दी। उसके बाद से सब कुछ फिर शांत पड़
गया है। अगर वाकई बीस लाख करोड़ के पैकेज का कोई हिस्सा जारी होने वाला है तो यह
आम जनता तक कैसे और कब पहुंचेगा, इस बारे में भी जानकारी दी जानी चाहिए। वरना
हर बार की तरह आर्थिक पैकेज का प्रवाह बड़े कर्जदारों का कर्ज माफ करने अथवा हाल के
दिनों के बट्टा खाता में डालने तक सीमित होकर रह जाएगा। इस पूरे पैकेज में एक बार पर
चर्चा नहीं हो पायी कि आखिर बिजली वितरण कंपनियों को किस बात का घाटा हो रहा है
और उन्हें घाटा के अनुपात में क्या कुछ राहत इस पैकेज के माध्यम से प्रदान की जाने
वाली है। आधुनिक सूचना तकनीक के युग में किसी भी बिजली उत्पादन संयंत्र से बिजली
उत्पादन का खर्च क्या है, यह सर्वविदित है। किसी संयंत्र से बिजली उत्पादन होने के बाद
उसे लोगों के घरों अथवा व्यापारिक या औद्योगिक प्रतिष्ठानों तक पहुंचने की जिम्मेदारी
इन बिजली वितरण कंपनियों की है। तो यह जानकारी भी मिलनी चाहिए कि किस दर से
बिजली उत्पादन हो रहा है, वह अंतर्राष्ट्रीय मानकों से कितना कम या ज्यादा है। इसे किस
दर से बिजली कंपनियां खरीद और बेच रही है। तब जाकर पता चलेगा कि वाकई आर्थिक
घाटा हो रहा है अथवा दिल्ली के तर्ज पर घाटा का आंकड़ा प्रस्तुत कर जनता के साथ
मिलीजुली ठगी की जा रही है।
आर्थिक पैकेज का अर्थ पहले जैसा पूंजीपतियों को फायदा नहीं
कोरोना का स्थायी ईलाज आने तक हमें कोरोना के साथ ही जीने का तरीका सीखना होगा,
यह लगभग स्पष्ट हो चुका है। ऐसे मे आम आदमी अपना परिवार कैसे पाल सकेगा, इस
पर विचार किये जाने की जरूरत है। इस स्थिति को समझने के लिए हाल के दो उदाहरणों
का उल्लेख बेहतर होगा। पहला उदाहरण मेरे परिचित एक खोमचा लगाने वाले युवक का
है। वह खोमचे पर रोज गोलगप्पे बेचा करता था। अच्छी खासी आमदनी थी। अब दोबारा
सड़क पर मिला तो उसके उत्तर ने मुझे इस पूरी स्थिति को समझने का नया आयाम
प्रदान किया। उस युवक का कहना था कि अगर अभी अनुमति मिल भी जाती है तो कितने
लोग संक्रमण के भय से ठेला पर खाने आयेंगे। सड़क किनारे उसके खोमचे पर गोलगप्पा
खाने वालों के मन में भी कोरोना का भय समाया हुआ है। ऐसे में उसका कारोबार सामान्य
होने में अभी बहुत वक्त लगेगा। दूसरा उदाहरण एक बड़े ज्वेलर का था। उनका भी कहना
था कि वह खुद नहीं चाहते हैं कि अभी दुकान खुले वह सिर्फ चाहते हैं कि छोटे मोटे
कारोबार करने वाली ज्वेलरी शापस के कारीगरों को रोजगार मिले। अपनी दुकान नहीं
खुलने का उनका तर्क भी हैरान करने वाला था। उनका कहना था कि प्रतिष्ठान बढा है तो
दुकान का शटर उठाने पर बिजली और एसी का खर्च आ जाएगा।
जनता के पास नकदी की अभी जबर्दस्त कमी हो चुकी है
लेकिन अभी जनता के पास पैसा ही कहां है तो कोई महंगी ज्वेलरी खरीदने आयेगा। दूसरी
तरफ जिन बाहरी प्रतिष्ठानों से उनके लिए ज्वेलरी तैयार होकर आती थी, वे सारे भी बंद
पड़े हुए हैं। वहां के अधिकांश कारीगर पश्चिम बंगाल के थे, जो गांव लौट चुके हैं। ऐसे में
कारखाना खोलने के लिए गुजरात की इन प्रतिष्ठानों में कुशल कारीगरों की जरूरत है।
दूसरी तरफ अगर काम चालू हो भी गया तो शादी का समारोह जोर पकड़ने तक तो ज्वेलरी
की मांग नहीं के बराबर रहेगी। यह कारोबार के निचले पायदान से लेकर ऊपरी पायदान
तक की वास्तविक स्थिति है। इसलिए आर्थिक पैकेज के क्या कुछ होने जा रहा है, इसके
बारे में भी जनता को जानकारी मिलनी चाहिए। कहीं पहले की तरह इस बार भी ऐसा न हो
कि चुपके चुपके आये पैकेज के बाद यह एलान हो कि जनता के फायदे के लिए सारा पैकेज
खर्च किया जा चुका है। सरकार चाहे वह केंद्र की हों अथवा राज्य की, सभी को इस बात पर
ध्यान देना चाहिए कि सबसे पहले गांव तक पैसा पहुंचे इसका इंतजाम किया जाना चाहिए
क्योंकि वहां जो मजदूर दूसरे राज्यों से लौट आये हैं, वे खाली हाथ हैं।
जो दूसरे राज्यों से लौटे हैं उनके हाथ भी पूरे खाली है
यह वास्तविक सत्य है कि अगर शीघ्र उन्हें रोजगार से नहीं जोड़ा गया तो झारखंड जैसे
राज्य में फिर से नक्सलवाद सर उठा सकता है क्योंकि बेरोजगार युवकों को अपनी
पारिवारिक जिम्मेदारी निभानी ही है। गांव के बाद छोटे कारोबारियों को सस्ते दर पर कर्ज
देकर पैसे का प्रवाह गांव और कस्बों से बढ़ाया जाना चाहिए। वहां से आर्थिक पहिया अगर
घूमना प्रारंभ हुआ तो स्वाभाविक गति के तौर पर यह आर्थिक प्रवाह शहर से होकर
महानगरों तक पहुंचेगा। बाकी उद्योग और कारोबार तो पहले से ही सरकार के कृपापात्र
रहे हैं।
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