ई0 प्रभात किशोर
अभियंता एवं शिक्षाविद
अब भारतीय राजनीति में जो कुछ बदलाव साफ साफ देखे
जा रहे हैं, उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि यहां जिस
मकसद से विधान परिषदों की स्थापना हुई थी, वे अपने
मकसद से भटक चुकी हैं।बिहार राज्य के सौवें साल पूरा होने के साथ-साथ बिहार विधान
परिषद भी अपने शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर गया है। पर विधान परिषद के 100 वर्ष की
कार्यप्रणाली एवं अन्य पहलुओं पर विचार करने के पश्चात् यह निष्कर्ष निकलता है कि
इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है। अब भारतीय राजनीति भारतीय गणराज्य के 28 में से
मात्र छह प्रदेशों यथा-बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्णाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश एवं तेलंगाना में
विधान परिषदें अस्तित्व में हैं। पर ऐसी बात नहीं हैं कि इन छह प्रदेशों में अन्य प्रदेशों की
अपेक्षा विकास के अधिक कार्य हुए हैं। इस प्रकार बिना किसी हिचकिचाहट के यह कहा जा
सकता है कि किसी प्रदेश के विकास से विधान परिषद का कोई संबंध नहीं है। अतः विधान
परिषद की कोई विशेष उपयोगिता नहीं है। दूसरे, विधान परिषद एक निष्क्रिय सदन है
क्योंकि इसे कोई अधिकार नहीं के बरावर दिया गया है। यह सामान्य विधेयक को
अधिकतम 4 माह तक (पहली बार 3 माह एवं दूसरी बार एक माह) एवं वित्त विधेयक को
मात्र 14 दिनों तक रोक सकता है। हालांकि प्रशासनिक क्षेत्र में इसे विधान सभा के
सम्तुल्य महत्व प्राप्त है एवं इसके सदस्य मुख्यमंत्री एवं मंत्री बनते हैं तथा सदन में प्रश्न
पूछते हैं एवं वाद-विवाद में हिस्सा लेते हैं। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि कमजोर सदन
होते हुए भी यह विधान सभा द्वारा पारित किसी तानाशाही विधेयक को कुछ समय के
लिए हीं सही, रोक सकता है एवं विधान सभा को इस विधेयक पर पुनर्विचार करने को
बाध्य करता है।
अब भारतीय राजनीति में हो क्या रहा है यह जगजाहिर है
अब भारतीय राजनीति में वर्तमान दलीय प्रणाली में यह तर्क उन्हीं प्रदेशों पर लागू होता है
जहॉं विधान परिषद में विपक्ष का बहुमत हो। तीसरे, संविधान के अनुसार, विधान परिषद
में साहित्य, कला, विज्ञान, सहकारिता, समाज-सेवा इत्यादि क्षेत्रों में ख्याति-प्राप्त
व्यक्तियों के मनोनयन की व्यवस्था है एवं उनके लिए कुछ सीटें सुरक्षित हैं। पर आजकल
ऐसे विद्वानों के स्थान पर वैसे राजनीतिज्ञों का मनोनयन होता है, जो जनता द्वारा
नकार दिये जाते हैं या राजनैतिक दलों के आकाओं के पिट्ठू मात्र हैं। हालांकि वर्तमान
परिवेश में इन मनोनयनों पर आपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि आज बड़े पैमाने पर
मतदान केन्द्रों पर कब्जे की घटनाएं हो रही हैं और प्रजातंत्र ‘अपराधी-तंत्र‘ में बदलता जा
रहा है। आज जो जितना उॅंचे दर्जे का अपराधी होता है, उसकी जीत उतनी हीं सुनिश्चित
मानी जाती है। परिणामस्वरूप कतिपय योग्य व्यक्ति जनता के बीच लोकप्रिय होते हुए
भी चुनाव हार जाते हैं। मनोनयन की व्यवस्था न रहने पर हम इनकी सेवा से वंचित हो
जायेंगे। इस प्रकार मनोनयन की व्यवस्था दोनों छोर पर धारवाली तलवार के समान है,
जो दोनों ओर से वार करती है। चौथे, समाज एवं राजनीति में धनतंत्र के बढ़ते प्रभाव से
धनकुबेरों के इस ‘‘बैकडोर‘‘ सदन में प्रवेश का रास्ता और आसान हो गया है। राजनैतिक
दलों में आंतरिक लोकतंत्र के स्थान पर सुप्रीमों-तंत्र के उद्भव से जमीनी कार्यकताओं के
संघर्ष, समर्पण एवं लोकप्रियता को नकारते हुए पदलोलूप बाहरी तत्वों एवं थैलीशाहों के
सदन में प्रवेश की गारंटी हुई है। पॉंचवें, विधान परिषद को लेकर जो सबसे अधिक चर्चा
का विषय है, वह है इसका ‘‘आर्थिक आधार‘‘।
विधान परिषद देश की जनता के लिए अब एक सफेद हाथी
अब अब भारतीय राजनीति दरअसल ऐसे विधान परिषद एक सफेद हाथी है, जिस पर
बेमतलब हीं उस जनता की खून-पसीने की कमाई के अरबों रुपये पानी की तरह बहाये
जाते हैं, जिसे दिन-रात कठिन परिश्रम के बावजूद दो जून की रोटी नसीब नहीं होती। कुछ
समय पूर्व किये गये सर्वेक्षण के अनुसार विधान परिषद के प्रत्येक सदस्य सिर्फ यात्रा
भत्ता के रूप में औसतन चार-पॉंच लाख रुपये खर्च करते हैं। हाल में उनके वेतन एवं अन्य
भत्तों में वृद्धि की गयी है एवं कार भत्ता भी देने का प्रावधान किया गया है। फलतः प्रति
सदस्य खर्च और भी बढ़ जायेगा। ये सारे खर्च गरीब जनता से हीं विभिन्न रूपों में वसूल
किये जायेंगे। आज वैसे भी सरकार पर काफी कर्ज है और अनेक कल्याणकारी योजनाएं
धन की कमी के कारण ठीक ढंग से लागू नहीं हो पा रहीं हैं। विधान परिषद के गुणों एवं
दोषों की विवेचना से स्पष्ट है कि हम उससे पाते कम और खोते ज्यादा हैं। विधान परिषदें
धनी राष्ट्र के उस संविधान की नकल मात्र हैं जिसमें कुलीनों के लिए द्वितीय सदन की
व्यवस्था है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि जनता के हितों को ध्यान में रखकर
दलीय राजनीति की भावना त्यागते हुए सभी राज्यों में विधान परिषदों को विघटित कर
देना चाहिए।
Be First to Comment
You must log in to post a comment.