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पांच सौ वर्षों में पहली बार नया शीशा
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देखने की तकनीक में क्रांतिकारी बदलाव
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लेंस आधारित सारे उपकरण भी बदलेंगे
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रोशनी को बेहतर तरीके से आगे बढ़ायेगा
प्रतिनिधि
नईदिल्लीः तरल स्फटिक से लेंस बनाने की एक विधि विकसित कर ली गयी है। यह शीशा
और देखने की दुनिया में क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला साबित होगा। दरअसल इंसानों ने
शीशा बनाने की विधि तो करीब पांच सौ वर्ष पहले ही विकसित कर ली थी। लगातार उसी
पद्धति में थोड़ा बहुत सुधार किया जाता रहा है। अब पहली बार ऐसा शीशा अथवा लेंस
विकसित किया जा रहा है जो परिवर्तनशील है। इस लिहाज से तरल स्फटिक का लेंस इस
जगत में नया आयाम जोड़ने जा रहा है।
हावर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक फेडरिको कैपासो और उनकी टीम ने यह काम कर
दिखाया है। यह शोध दल पिछले एक दशक से इस पर काम कर रहा था। इनलोगों ने
अत्यंत सुक्ष्म पारदर्शी क्वार्ट्ज से यह काम किया है। इसकी वजह से सामान्य शीशा के
एक रुपी होने की जो स्थिति होती थी, उसे पूरी तरह बदला जा रहा है। आम तौर पर पहले
के शीशे में जो स्वरुप एक बार ढाल दिया जाता था, उसे किसी दूसरे स्वरुप में ढालना
संभव नहीं था। लेकिन इस तरल स्फटिक के लेंस के साथ ऐसा नहीं होगा। इन लेंसों को
जरुरत के मुताबिक अलग अलग स्वरुप में बदला जा सकेगा। साथ ही आम शीशा में
रोशनी को आगे बढाने अथवा परावर्तित करने में जो कुछ गड़बड़ियां रह जाती थी, इस नये
लेंस में उन्हें भी पूरी तरह दूर कर लिया गया है।
तरल स्फटिक के शीशे का हर इस्तेमाल संभव
हम यह मान सकते हैं कि अब शीघ्र ही इस नई प्रजाति के लेंस कैमरा, फोन, सेंसर अथवा
चिकित्सा जगत के लेंस आधारित सारे यंत्रों में नजर आने जा रहे हैं। इसमें रोशनी की
गुणवत्ता में क्रांतिकारी बदलाव आम आदमी को भी तुरंत समझ में आयेगा क्योंकि वे
शीशे से कितनी रोशनी आती है, इसे अच्छी तरह जानते हैं। आकार में बहुत छोटे होने की
वजह से भी तरल स्फटिक से बने इन लेंसों से वैज्ञानिक और मेडिकल जगत का बहुत कुछ
बदल जाएगा। यहां तक कि शरीर के अंदर झांकने की जिस विधि से एंडोस्कोपी जैसे काम
किये जाते थे, वे भी अब पूरी तरह बदल जाएंगे। अनुमान है कि सूचना तकनीक को तीब्र
गति देने वाला ऑप्टिक फाईबर भी इसकी वजह से बदल जाएगा और उसकी कार्यक्षमता
और कई गुणा बढ़ जाएगी।
तरल स्फटिक से बने इन लेंसों की सबसे बड़ी विशेषता उन्हें अलग अलग तरीके से ढालने
की विधि है। आम तौर पर ठोस लेंस को एक काम के लिए तैयार कर लेने के बाद उसे दूसरे
तरीके से बदलना संभव नहीं होता था। इसमें ऐसा नहीं होगा। इन लेंसों को जरूरत के
मुताबिक दोबारा बदला अथवा मोड़कर दूसरे काम में भी लगाया जा सकेगा। इसी तकनीक
की वजह से लेंस आधारित उपकरणों का आकार और वजन भी कम होने जा रहा है। इस
लिहाज से वैज्ञानिक यह मान रहे हैं कि शीशा में पांच सौ वर्षों में पहली बार कोई ऐसा
बदलाव होने जा रहा है जो पूरी तकनीक को ही बदलकर रख देगा।
हमारा इतिहास कहता है कि 16वीं सदी से शीशा बनना शुरु हुआ
इतिहास के मुताबिक 16 वीं सदी से ही शीशे के उपयोग की जानकारी हमारे पास मौजूद है।
तब से लेकर अब तक सिर्फ ठोस लेंस अथवा शीशे ही बनते आये हैं। मसलन चश्मा के लिए
तैयार किये जाने वाले लेंसों को एक बार जो आकार दे दिया जाता है, उसमें दोबारा कोई
परिवर्तन नहीं किया जा सकता। लेकिन तरल स्फटिक के लेंस में ऐसी मजबूरी नहीं होगी।
इस विधि पर जारी परीक्षण के सफल होने की औपचारिक घोषणा इसी माह नेशनल
एकाडेमी ऑफ साइंसेंज में दर्ज करायी गयी है। इस शोध को आगे बढ़ान में कई अन्य
वैज्ञानिकों ने भी अपनी भूमिका अदा की है। इस विधि से तैयार तरल स्फटिक के लेंस
अत्यंत सुक्षअम आकार के लेसों का समूह हैं, इसलिए उनका इस्तेमाल ज्यादा
सुविधाजनक है क्योंकि वे रोशनी को रोकते नहीं हैं। साथ ही जैसी जरूरत है, उन्हें बाहरी
निर्देश के जरिए किसी एक काम से दूसरे काम के लिए भी लगाया जा सकता है। इस गुण
की वजह से उसके शोध से जुड़े वैज्ञानिक दल मानता है कि जिस तरह फोटोग्राफी के लिए
लोगों को अलग अलग लेंस की जरूरत पड़ती थी, वह सारी जरूरतें इस विधि से तैयार एक
लेंस और उसे निर्देशित करने वाला यंत्र ही पूरी कर देगा। आने वाले दिनों में इंसानों की
आंखों में लगने वाले लेंसों में भी इसी विधि से तैयार लेंस भी लगेंगे, जो आंखों की रोशनी
को और बढ़ा देंगे और आवश्यतानुसार उसमें बाहरी निर्देश के आधार पर संशोधन भी
किया जा सकेगा।
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