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रेगिस्तानी कीड़ा ने दिखाई जल संरक्षण की नई राह
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गुबरैले कीड़ा ने दिखायी जल संरक्षण का नया रास्ता
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शहरीकरण की वजह से भूगर्भस्थ जल की कमी
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विश्व में तेजी से घट रहा है पानी का भंडार
प्रतिनिधि
नईदिल्लीः विज्ञान के अनेक कठिन सवाल मुख्य तौर पर प्रकृति और
प्राकृतिक घटनाक्रमों से जुड़े होते हैं। इनमें से एक बड़ा सवाल पूरी
दुनिया में मीठे पानी के घटता भंडार भी है। हम पहले से ही इस बात
को जानते हैं कि समुद्र के खारे पानी का इस्तेमाल जीवन के लिए नहीं
हो सकता। यहां तक कि सिंचाई में भी यह पानी खेती के काम नहीं
आया। दूसरी तरफ आबादी बढ़ने तथा अन्य कारणों से पानी की खपत
दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। भारत जैसे देशों में सीमेंट के ढांचों ने भी
भूमिगत जल भंडार को रिचार्ज करने का रास्ता रोक रखा है। ऐसे में
दुनिया भर के वैज्ञानिक अब पानी की समस्या के समाधान के लिए
रास्ता तलाश रहे हैं।
वैज्ञानिकों को यह आशंका भी है कि अगर पानी की अधिक कमी हुई
तो यह पूरी दुनिया में युद्ध जैसी परिस्थितियां पैदा कर देगी।
इस पानी के सवाल पर वैज्ञानिकों को एक गुबरैले कीड़े ने नई राह
दिखायी है। वह रेगिस्तानी कीड़ा वैज्ञानिकों के लिए जल संरक्षण
का पथ प्रदर्शक बना है। इन कीड़ों की दिनचर्या पर गौर करने के बाद
वैज्ञानिक इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि यह कीड़े रेगिस्तान में रात को
पड़ी ओस की बूंदों को अपनी पीठ पर रगड़कर नमी प्राप्त कर लेते हैं।
नामिब रेगिस्तान में इन गुबरैले कीड़ों का यह जीवन आचरण
देखकर वैज्ञानिकों को जल संरक्षण की नई तरकीब का पता चला है।
विज्ञान के सवालों का समाधान बताती है प्रकृति
इस रेगिस्तान का इलाका काफी फैला हुआ है। यह ऊंचा-नीचा भी है।
इसलिए रात को जब यहां ओस की बूंदें टपकती हैं तो सुबह सुबह ही
यह कीड़े इन बूंदों के दोबारा भाप बन जाने के दौरान ही अपने लिए
नमी हासिल कर लेते हैं।
इस विधि का पता चलने के बाद वैज्ञानिकों ने इन गुबरैले कीड़ों की
संरचना का गहराई से अध्ययन किया। इससे पता चला कि प्रकृति ने
उनकी पीठ पर उबड़-खाबड़ा इलाका बना रखा है। इसलिए ओस की बूंदे
जब इस चमड़ी के संपर्क में आती हैं तो इस चमड़ी के गहरे इलाकों में वे
पानी की छोटी छोटी बूंद बनकर टिक जाती है। चमड़े की आंतरिक
संरचना उन्हें क्रमवार तरीके से अंदर सोख लेती है।
इस विधि का पता चलने के बाद खास तौर पर इस विधि का इस्तेमाल
समुद्री तट के उन इलाकों में किया जाने वाला है, जहां मीठे पानी की
कमी है लेकिन वहां के वातावरण में नमी अधिक है। वैज्ञानिक इसी
किस्म का सतह तैयार कर उनमें ओस की बूंदों को कुछ इस तरीके से
संरक्षित करने की योजना पर काम कर रहे हैं, ताकि उस पानी को अंदर
सोखकर एकत्रित किया जा सके।
इस विधि से हर रात ओस के जरिए मीठे पानी का एक नया भंडार
तैयार किया जा सकेगा। वरना आम तौर पर यह ओस सुबह की
धूप में फिर भाप बनकर उड़ जाता है। वैज्ञानिक मानते हैं कि इन कीड़ों
की विधि से रेगिस्तानी इलाकों में भी बड़े बड़े आकार के ढांचा तैयार
कर वहां भी मीठा पानी एकत्रित करने का नया जरिया तैयार किया
जा सकता है।
जहां पानी की कमी है, वहां कारगर साबित होगी विधि
वैज्ञानिक मानते हैं कि इस विधि से कमसे कम जहां पानी की कमी के बाद भी नमी अधिक है, वहां पानी की समस्या कुछ हद तक दूर की जा सकती है।
वैज्ञानिकों का आकलन है कि जब एक मिलीमीटर आकार का कीड़ा
अपनी जरूरत का पानी इससे हासिल कर सकता है तो ऐसे इलाकों में
लोगों की जरूरतों को भी सीमित तौर पर निश्चित ही पूरा किया जा
सकता है।
नामिब रेगिस्तान के इन कीड़ों की संरचना का अध्ययन इलिनियोस
विश्वविद्यालय के शोध दल ने किया है। शोध पूरा होने के बाद वे इसी
तरीके से नमी के माध्यम से पानी हासिल करने की तकनीक को पानी
की समस्या से मुकाबला करने के नया हथियार के तौर पर प्रस्तुत कर
रहे हैं। इसी तरीके से नमी से पानी हासिल करने की अन्य विधियां
पहले से ही इस्तेमाल में हैं। इनमें से कुछ का इस्तेमाल पहले से ही
चिली और मोरक्को जैसे देशों के कुछ इलाकों में किया जाता है। इन
प्रचलित विधियों का इस्तेमाल कर लोग एक पेड़ के ऊपर जाली
बिछाकर औसतन प्रतिदिन 53 गैलन मीठा पानी हासिल कर लेते हैं।
अब गुबरैले कीड़े की जीवन पद्धति के आधार पर इस विधि से और
अधिक पानी एकत्रित किया जाना संभव हो पायेगा।
वैज्ञानिक मानते हैं कि इस बूंद बूंद पानी के जरिए कम पानी वाले
रेगिस्तानी इलाकों में भी कृषि के लिए सिंचाई का बेहतर इंतजाम हो
पायेगा। इन रेगिस्तानी इलाकों में जब हरियाली लौटेगी तो धीरे धीरे
वहां पानी का भंडार प्राकृतिक तौर पर फिर से बढ़ने लगेगा।
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