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खेतों में पत्थरों से भी कॉर्बन डॉईऑक्साइड सोखा जा सकता है
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इस कोरोना काल ने हमें नई चीजें दिखाई
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ज्वालामुखी से निकले पत्थर काम आयेंगे
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प्रदूषण कम करने की लागत भी काफी कम
प्रतिनिधि
नईदिल्लीः वैश्विक लॉक डाउन के दौरान हमलोगों ने अनेक अजीब किस्म की घटनाओं
को देखा है। दरअसल जनजीवन के ठहर से जाने से जहां पर्यावरण साफ हुआ है वहीं
जंगली जानवर भी इंसानों की हरकतों से तंग आने के बदले शांति से शहरों की तरफ चले
आते नजर आये हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अपने गांव के करीब ही भालुओं को भी
सड़कों पर मंडराते देखा जा रहा है। उत्तरी पश्चिम बंगाल के अनेक ग्रामीण इलाकों में खेत
छोड़कर गांव के अंदर तक हाथी, बाघ और यहां तक कि गेंडे भी चले आये हैं।
बहुत कुछ उल्टा पुल्टा हो रहा है इस शांत दौर में
इस बदलाव के क्रम में ही नई बात यह सामने आयी है कि दुनिया के प्रदूषण के सबसे बड़े
कारक यानी कॉर्बन डॉईऑक्साइड को भी कम किया जा सकता है। इसके लिए खेतों में
अगर पत्थरों के बुरादों को बिखेर दिया जाए तो वे भी हर साल करीब दो बिलियन टन
सीओ 2 सोख सकते हैं। इससे भी दुनिया में कॉर्बन डॉई ऑक्साइड बढ़ने से हो रही प्रदूषण
संबंधी परेशानियो को कम किया जा सकेगा। वैसे इस पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों ने
स्पष्ट किया है कि ज्वालामुखी विस्फोट की वजह से पृथ्वी की गहराई से बाहर आने वाले
वासाल्ट के पत्थर ही इसमें काम आ सकते हैं। इन पत्थरों को अगर बहुत बारिक पिसकर
खेतों में बिखेर दिया जाए तो स्वाभाविक तौर पर वे कॉर्बन डॉई ऑक्साइड सोखने लगते
हैं। इसके सोखने के अनुमान को खुली और खाली पड़ी जमीन के इस्तेमाल के तरीकों के
आधार पर निकाला गया है। वैज्ञानिकों ने इसके लिए पूरी दुनिया से होने वाले सीओ 2 के
उत्सर्जन के आंकड़ों को भी विश्लेषित किया गया। उसके मुताबिक दुनिया का वायुमंडल में
सबसे अधिक कॉर्बन डॉई ऑक्साइड छोड़ने वाले देशों में भारतवर्ष का भी नाम है।
दुनिया में सबसे अधिक सीओ 2 उत्सर्जन में भारत भी है
इसके अलावा चीन और अमेरिका से भी सबसे अधिक कॉर्बन डॉई ऑक्साइड हवा में छोड़ा
जाता है, जो पृथ्वी की आवोहवा में जहर घोलता जा रहा है। इसके अनेक दुष्परिणाम भी
देखने को मिल रहे हैं। खेतों पर बास्फाल्ट के पत्थरों का चूर्ण अगर बिखेर दिया जाए तो
हर साल करीब दो बिलियन टन कॉर्बन डॉई ऑक्साइड को सोखा जा सकता है। यह मात्रा
दुनिया में उड़ने वाले सारे हवाई जहाज और समुद्र में चलने वाले पानी के जहाजों से निकले
वाले सीओ टू के बराबर है और पूरी यूरोप की सीओ 2 उत्सर्जन का आधा है। जाहिर है कि
इस विधि के लागू होने पर वायुमंडल पर इसका बेहतर परिणाम दिखना भी प्रारंभ हो
जाएगा। वैज्ञानिकों का मत है कि खनन उद्योग में निकलने वाले अन्य अनुपयोगी पदार्थ
भी इसमें मददगार साबित हो सकते हैं। शैफिल्ड विश्वविद्यालय के एक शोध दल ने यह
काम करते हुए कोरोना के दौरान वैश्किव लॉक डाउन की परिस्थितियों के बीच इसका
अध्ययन किया है। यह शोध एक अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक पत्रिका में प्रकाशित भी की गयी
है।
ऐसे शोधों का अब दुनिया में ज्यादा महत्व है
इस शोध का महत्व इसलिए भी अधिक है क्योंकि दुनिया से कॉर्बन डॉई ऑक्साइड कम
करने के पेरिस सम्मेलन में यह तय किया गया है कि वर्ष 2050 तक पूरी दुनिया में इस
उत्सर्जन को शून्य पर ले जाना है। इस विधि से इस लक्ष्य को कम लागत पर और सही
तरीके से हासिल भी किया जा सकता है। अगर इस विधि से काम हुआ तो वायुमंडल में
जहर घोल रहे इस कॉर्बन डॉई ऑक्साइड की मात्रा को कम करने में कोई खास परेशानी
नहीं होगी। वैश्विक लॉक डाउन जैसी परिस्थितियां प्रदूषण की वजह से भी आ सकती है,
इसके कई उदाहरण भी हमारे पास मौजूद है। चीन की राजधानी बेइजिंग में भी कई बार
इसी प्रदूषण की वजह से जनजीवन ठहर सा जाता है। जाड़े के दिनों में दिल्ली में भी
हरियाणा और पंजाब के खेतों में पराली जलाने की वजह से ऐसी परिस्थिति पैदा होती
रहती है।
वैश्विक लॉक डाउन ने हमें दूसरे नजरिए से देखना सिखाया
वैज्ञानिकों ने पाया है कि जिन तीन देशों यानी चीन, अमेरिका और भारत से सबसे अधिक
कार्बन उत्सर्जन हो रहा है, उन देशों में इस विधि को आसानी से लागू किया जा सकता है
क्योंकि उनके पास ऐसा करने के लिए खुले और खाली खेत मौजूद हैं। वैज्ञानिक मानते हैं
कि उपज वाले खेतों में भी इस विधि को आजमाया जा सकता है। इससे फसल की पैदावार
पर भी कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा क्योंकि बास्फाल्ट पत्थर के बारीक चुर्ण इसकी
पैदावार के लिए मददगार ही बनेंगे। इस विधि से कार्बन डॉई ऑक्साइड कम करने का
अनुमानित लागत भी अस्सी से एक सौ अस्सी अमेरिकी डॉलर प्रति टन आयेगा।
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[…] वाले एक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में इस उपलब्धि पर और गहन चर्चा के बाद […]