देश के किसान नहीं होते तो वैश्विक मंदी के दौर में भारत कई दशक पहले ही पूरी तरह
तबाह हो चुका होता। उसकी स्थिति भी तब गृहयुद्ध से पीड़ित अनेक अफ्रीकी देशों जैसी
होती, जहां शहरो में सरकार है और अलग अलग इलाकों के ग्रामीण क्षेत्रों में अलग अलग
हथियारबंद गुटों का कब्जा है। भारत अगर आर्थिक मोर्चे पर वैश्विक चुनौतियों का
मुकाबला कर पाया है तो उसके नींव में भारतीय किसान ही हैं। कृषि विधेयकों पर लगातार
जारी बहस और राजनीति के बीच केंद्र सरकार को सबसे पहले यह बताना चाहिए कि क्या
उससे देश के आम किसान से उसकी राय ली थी। जिसके बारे में इतना बड़ा फैसला आनन
फानन में लिया गया उसमें असली भूमिका तो किसानो की थी। तो तय था कि स्वाभाविक
लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत किसानों से इस पर चर्चा कर ली जाती। हम बचपन से यह
पढ़ते आये हैं कि भारत एक कृषि प्रधान देश है। लेकिन अब सवाल यह उठ रहा है कि यह
कैसा कृषि प्रधान देश है, जहां किसानों के बारे में फैसला लेने के पहले किसानों से कोई
चर्चा तक नहीं होती। हकीकत में गांव में छोटा किसान, शहर में मध्यम वर्ग का जवान,
और सीमा पर तैनात जवान दुखी है । देश में एक समान नीति बनाने में में किसी की रूचि
नहीं है। किसान के नाम पर फुक्का फाड़कर रोने वाले विरोधी दलों के लोग भी जब सरकार
में थे तो किसान से संबंधित मुद्दों पर फैसला लेने के पहले किसानों से चर्चा करना उचित
नहीं समझते थे। आज उन्हें ही किसानों का दर्द सता रहा है।
देश के किसान जहां मजबूत और संगठित हैं, वहां हालात दूसरे हैं
दरअसल राष्ट्रीय स्तर पर अगर किसान एकजुट होते और उसकी इस एकजुटता का पूरे
देश में एक बार भी प्रदर्शन हो जाता तो सभी सरकार और विरोधी दल एक साथ किसान के
आगे घुटने टेक देते क्योंकि सारा खेल तो वोटों के आसरे चलता है।
आज भी पंजाब में अकाली दल जैसा संगठन अगर भाजपा के नाता तोड़कर भाग जाना
चाहता है तो उसके पीछे पंजाब के राजनीतिक तौर पर मजबूत किसान ही हैं। पंजाब,
हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के इलाकों के किसान राजनीतिक ताकत में देश के दूसरे
हिस्सों के किसानों से ज्यादा मजूबत है। इसी वजह से वहां का हर फैसला किसान की
इच्छा और अनिच्छा पर निर्भर है। देश में ऐसी स्थिति होती किसान राजनीतिक यानी
वोट की ताकत से खुद को मजबूत कर चुके होते तो सभी राजनीतिक दलों के बात करने
का तौर तरीका ही बदल जाता। देश के किसान की मजबूरी है, अपने को किसान पुत्र कहने
वाले मंत्री, मुख्यमंत्री, सांसद विधायक सब हैं, पर कोई उससे उसका दर्द नहीं पूछता। पूरे
देश में खेती-बाड़ी और किसानों की चुनौतियां तथा सफलताएं लगभग एक भी हैं। 66-67
की हरित क्रांति हो या 73-74 अनाज की भंडारण क्रांति केंद्र में किसान था आज भी किसान
का कौशल अकुशल भंडारण, आधे अधूरे दाम, मंडियों में तोलने में गड़बड़ी, भुगतान में
हेरा-फेरी और देरी तथा मंडियों से शुरू नेताओं की राजनीति के आगे परास्त है । इसके
विपरीत कई वर्षों से भाजपा ही नहीं, कांग्रेस, समाजवादी, जनता दल अपने घोषणा-पत्रों में
बिचौलियों से मुक्ति, अधिक दाम, फसल बीमा और हर संभव सहयोग के वायदे करती
रही हैं। नतीजा सबके सामने है। प्रधानमंत्री मोदी और कृषिमंत्री नरेंद्र तोमर ने घोषणा कर
दी है कि सरकार द्वारा न्यूनतम मूल्यों पर खरीद निरंतर होती रहेगी।
कृषि कार्य से जुड़े लोगों की शंकाओं का निवारण कौन करेगा
खाद्य निगम गेहूं और धान तथा नेफेड दलहन व तिलहन की खरीद करते रहेंगे। लेकिन
जिस तरीके से देश के हर उद्योग और कारोबार का सरकार निजीकरण करती जा रही है,
वहां पर किसान को किया गया यह वादा भी कहां तक टिक पायेगा, यह बड़ा सवाल है।
उससे भी बड़ा सवाल यह है कि आखिर फैसले में किसान की सहमति किस हद तक है।
और अगर नहीं है तो इतना बड़ा फैसला बिना उसकी सहमति के लेने का देश की कृषि
आधारित अर्थनीति पर क्या प्रभाव डालेगा। सरकारी मदद के बिना जो किसान पूरे देश को
अनाज देता आ रहा है, उसकी इस तरीके से उपेक्षा आखिर क्यों, यह बड़ा सवाल अगले
चुनाव में सत्तारूढ़ दल को परेशान करने वाला साबित हो सकता है। सवाल यह है किसान
केवल सरकारों पर ही निर्भर क्यों रहे या वह इलाके की मंडी की मेहरबानी पर क्यों रहे? वह
अपनी फसल का मनचाहा दाम क्यों न लें। यह भी अनुमान जताया जा रहा है कि बड़े
व्यापारी शुरू में अधिक कीमत दें और बाद में कीमत कम देने लगें। यही गलती हैं कि अब
किसान और दूर-दराज के परिवार संचार माध्यमों से बहुत समझदार हो गये हैं. वे बैंक
खाते, फसल बीमा, खाद, बीज और दुनिया भर से भारत आ रहे तिलहन, प्याज, सब्जी-
फल का हिसाब-किताब भी देख-समझ रहे हैं। भंडारण-बिक्री की व्यवस्था होने पर उन्हें
अधिक लाभ मिलने लगेंगे। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में देश का किसान कहां है, यह सबसे
बड़ा राजनीतिक सवाल है।
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