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मिथेन को रॉकेट का ईंधन बनाकर अंतरिक्ष यात्रा की तैयारी
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सौरजगत में दूर जाकर लौटना संभव होगा इससे
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मौजूद कार्बन डॉईऑक्साइड और बर्फ से बनेगा
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मंगल अभियान में काम आयेगी यह तकनीक
राष्ट्रीय खबर
रांचीः महाकाश में काफी दूर तक जाने तक की तकनीक तो है लेकिन अगर उस यान में
अंतरिक्ष यात्री भी मौजूद हों तो उसकी सकुशल वापसी की तकनीक में ईंधन ही सबसे बड़ी
बाधा हो जाती है। इसलिए अब अंतरिक्ष में मौजूद मिथेन को भी अंतरिक्ष यान को आगे
बढ़ाने के लिए बतौर ईंधन इस्तेमाल करने की तकनीक प्रगति पर है। इस दिशा में नई
तकनीक पर एक शोध प्रबंध भी प्रकाशित हुआ है। इसमें बताया गया है कि भविष्य के
अंतरिक्ष अभियानों में इस्तेमाल होने वाले रॉकेटों के आने के लिए पारंपरिक ईंधन का
इस्तेमाल होगा। लेकिन पृथ्वी से मंगल तक की यात्रा में वापसी के लिए इसी यान के
रॉकेट को अंतरिक्ष में मौजूद मिथेन से अपना ईंधन बनाकर चलना पड़ेगा। इसके लिए
शोधकर्ताओं ने एक नई तकनीक विकसित करने का दावा किया है। वैसे स्पेस एक्स के
जरिए लगातार अंतरिक्ष में सैटेलाइट भेज रहे इलोन मस्क और उनके इंजीनियरों ने
सैद्धांतिक तौर पर इसपर काफी काम भी किया है। वे मंगल ग्रह पर मौजूद कार्बन
डॉईऑक्साइड और बर्फ के पानी से कार्बन और हाईड्रोजन तैयार कर मिथेन बनाना चाहते
हैं। इस मिथेन के वहां बन जाने के बाद उसे वापसी के लिए बतौर ईंधन इस्तेमाल किया
जा सकेगा। एक बार मिथेन बन जाने के बाद रॉकेट को वापसी के लिए पर्याप्त ईंधन
हासिल हो जाएगा। वर्तमान में महाकाश में काफी दूर तक जाकर वापस लौटने में यही
सबसे बड़ी बाधा है। यह कमी दूर होने के बाद सुदूर महाकाश यात्रा के रास्ते में एक बहुत
बड़ी बाधा दूर हो जाएगी। फिर तो अंतरिक्ष में कहीं भी जाने के बाद इसी तकनीक के
आधार पर वापसी के लिए ईंधन जुटाना संभव हो जाएगा। यानी जहां कहीं भी कार्बन
डॉईऑक्साइड और बर्फ मौजूद हैं, वहां जाने के बाद वहां के संसाधनों से मिथेन बनाकर
ईंधन जुटाना आसान होगा।
महाकाश के लिए तैयार तकनीक सैद्धांतिक तौर पर सही
सैद्धांतिक तौर पर यह संभव तकनीक है लेकिन इसे अमल में लाने के लिए वैसे उपकरणों
का विकास किया जाना जरूरी है तो वाकई इस काम को कर सके। इसे व्यवहार में लाने के
लिए इस दिशा में अभी और शोध करने के बाद उस तकनीक को विकसित किये जाने की
आवश्यकता है क्योंकि सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर ही इसे अभी आंका गया है। अलबत्ता
प्रयोगशाला में भी इसकी जांच हुई है लेकिन व्यवहार में यह कितना सफल होगा या फिर
संयंत्रों में क्या कुछ बदलाव और करना पड़ेगा, इसकी जांच अभी चल रही है। कैलिफोर्निया
विश्वविद्यालय के भौतिकी विभाग के शिक्षक हुओलीन जिन कहते हैं कि इसे व्यवहार में
लाने के लिए बहुत कुछ इंजीनियरिंग और रिसर्च करने की जरूरत है। लेकिन सैद्धांतिक
तौर पर यह एक महत्वपूर्ण खोज है इसलिए इस शोध को और आगे बढ़ाया जाना चाहिए।
दो चरणों की तकनीक में से एक इस्तेमाल में है
इस अनुसंधान से जुड़े वैज्ञानिकों ने दो चरणों की तकनीक का इस्तेमाल किया है। पहले
चरण में इनलोगों ने बर्फ से पानी बनाकर उससे सांस लेने लायक ऑक्सीजन तैयार किया
है। महाकाश में अंतर्राष्ट्रीय स्पेस स्टेशन पर इसका प्रयोग किया जा चुका है। इस काम
को पूरा करने के लिए वैज्ञानिकों ने जिंक के परमाणु को बतौर उत्प्रेरक (कैटेलिस्ट)
इस्तेमाल किया है। जिंक के अणुओँ को अंतरिक्ष अभियान में काफी दूर तक सुरक्षित भेज
पाना संभव भी है। इस उत्प्रेरक की वजह से कॉर्बन डॉईऑक्साइड से मिथेन बनाना आसान
है। वर्तमान में अंतरिक्ष अभियान में इस्तेमाल होने वाले अधिकांश रॉकेट इस ईंधन का
इस्तेमाल नहीं करते हैं। लेकिन तरल हाईड्रोजन पद्धति वाले ईंधन के मुकाबले यह मिथेन
पद्धति काफी लाभदायक है। तरल हाईड्रोजन के जलने से रॉकेट के इंजन में कार्बन के छोटे
छोटे कण एकत्रित होते चले जाते हैं। इन सुक्ष्म कणों को साफ करने की आवश्यकता
पड़ती है।
लौटने के लिए ईंधन का भंडार ही वर्तमान में अड़चन
महाकाश में बहुत लंबी यात्रा पर अगर कोई रॉकेट जाए तो इंजन के अंदर जमा होने वाले
इस कचड़े को साफ करना संभव नहीं होगा। मिथेन आधारित ईंधन से रॉकेट अगर
संचालित होगी तो यह परेशानी नहीं होगी। स्पेस एक्स द्वारा इस्तेमाल की जाने वाले
रैप्टर इंजन के अलावा ओरजिन के बीई-4 इंजन और फायरफ्लाई के अल्फा इंजनों को
विकसित करने में भी इसी तकनीक पर काम चल रहा है।
इस बीच भारतवर्ष की तरफ से भी यह एलान हुआ है कि वह अगले दशक से दोबारा
इस्तेमाल में लाये जाने वाले रॉकेटों का इस्तेमाल प्रारंभ करेगा। इसरो के अध्यक्ष के
शिवन ने इसकी घोषणा की है। अंतरिक्ष अभियान मे भारतीय तैयारियों के संबंध में
उन्होंने कई जानकारियां सार्वजनिक की हैं, जिनसे यह स्पष्ट है कि भारतवर्ष भी अंतरिक्ष
विज्ञान की दिशा में लंबी छलांग लगाने की तैयारियों मे जुटा है।
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