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21 साल से डायन प्रथा के खिलाफ चला रही है अभियान
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सिंहभूम के इलाके में पीड़ित महिलाओं की मसीहा
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अनेक ऐसी महिलाओं की बचा चुकी है जान
रांचीः छुटनी देवी को पूरा झारखंड भले ही नहीं पहचानता हो लेकिन सिंहभूम के ग्रामीण
इलाकों में उन्होंने अपने संघर्ष की बदौलत अपनी अलग पहचान बनायी है। सरायकेला-
खरसावां जिले के बीरबांस गांव की रहने वाली छुटनी देवी को समाज सेवा के लिए आज
भारत सरकार ने पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा की है। छुटनी देवी को 25
साल पहले डायन बताते हुए गांव-घर से निकाल दिया गया था। उस वक्त की
परिस्थितियां और अधिक विकट थी लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। अंधविश्वास और
इस कुप्रथा के खिलाफ निरंतर अभियान चलाती रही और वह अपने मायके में ही रहकर
इसके खिलाफ जमकर अभियान चला रही है। छुटनी देवी न सिर्फ इस कुप्रथा के खिलाफ
अभियान चला रही है, बल्कि अपने सामर्थ्य और निजी खर्च से प्रतिदिन 15-20 गरीब और
डायन प्रथा से पीड़ित महिलाओं को अपने घर पर भोजन भी कराती है।
वर्ष 1999 में ससुराल में डायन प्रथा की शिकार हुई छुटनी देवी पिछले 25 सालों से बीरबांस
गांव में अपने मायके में रह रही है। इस दौरान उसने इस अंधविश्वास और रूढ़िवादी प्रथा
के खिलाफ इस तरह से जोरदार अभियान चलाया। झारखंड ही नहीं,देश के विभिन्न
हिस्सों से डायन प्रथा की शिकार महिलाएं आज उनसे मदद मांगने पहुंचती है। वह
प्रतिदिन अपने खर्च पर गरीबों को भोजन भी कराती है और बताती है कि आज तक उसे
प्रशासन की ओर से कुछ खास मदद नहीं मिली, स्थानीय विधायक भी उनसे मिलने आये
थे, परंतु किसी की ओर से कोई मदद नहीं मिली, इसके बावजूद वह इस कुप्रथा के खिलाफ
अपने दम पर संघर्ष कर रही है। कभी डायन बताकर गांव से निकाली गयी छुटनी देवी
आज इस कुप्रथा की शिकार महिलाओं के लिए मसीहा बन चुकी है और इस अंधविश्वास
के खिलाफ आंदोलन चला रहे संगठनों के लिए वह आदर्श बन चुकी है।
छुटनी देवी के साथ जो कुछ हुआ उससे इराका और पक्का किया
डायन कह कर कभी मल-मूत्र पिलाया, सिर मुड़ कर गांव की गलियों में घसीटा गया था।
यह 1999 की बात है। जमशेदपुर स्थित गम्हरिया, के महताइनडीह वासियों ने उसे
अनायास ही डायन की संज्ञा दे डाली। आस-पड़ोस में घटने वाली घटनाएं उसके सिर मढ़ी
जाने लगी। लोगों ने उसे मल-मूत्र पिलाया। पेड़ से बाधकर पीटा और अधनंगा कर गांव की
गलियों में घसीटा। जमाने की ओर से दिया गया छुटनी महतो का यह दर्द आज समाज का
मर्ज बन गया है। कोई और महिला उसकी तरह प्रताड़ित न की जाए, ऐसी घटना की
सूचना मात्र पर वह अपने पूरे दल के साथ गंतव्य तक पहुंच जाती है, बल्कि लोगों को
पहले समझाती है, नहीं माने तो कानून की चौखट तक पहुंचाती है। जानकार बताते है कि
छुटनी 12 वर्ष की उम्र में ही महताइनडीह के धनंजय महतो से ब्याह दी गई। कुछ दिनों
तक सबकुछ ठीकठाक चला, परंतु धनंजय के बड़े भाई भजोहरि की आखों को छुटनी फूटी
आख नहीं सोहाती। वजह थी तो बस इतनी कि भजोहरि धनंजय की शादी अपनी साली से
कराना चाहता था, परंतु छुटनी बीच में आ गई। गाली-गलौज, मारपीट से जब मन नहीं
भरा तो भजोहरि ने उसके घर चोरी करवा दी। छुटनी कहती है कि स्थिति इतनी विकट हो
चली कि वह अपने परिवार के साथ गांव के बाहर झोंपड़ी बनाकर रहने लगी। इस बीच
भजोहरि की बेटी बीमार पड़ी। भजोहरि ने चिकित्सा के बजाय उसे ओझा के हवाले कर
दिया। ओझा ने तो उसे डायन बताया ही, शेष कसर उसकी बीमार बेटी ने पूरी कर दी। भरी
सभा में उसने यह कह डाला कि छुटनी उसे खाये जा रही है। सपने में भी वह उसे प्रताड़ित
करती है।
पूरी ताकत से प्रतिरोध किया तो अनेक लोग दुश्मन हो गये
अब गांव की आफत नाम से पुकारी जाने लगी। भरी आखों से छुटनी कहती है। उसे मारने
की नीयत से उसके घर पर हमला हुआ, परंतु वह बाल-बाल बच गई और भागकर अपने
मायका झाबुआकोचा पहुंची, जहा कुछ महीने रहने के बाद वह गैर सरकारी संस्था आशा
के संपर्क में आई। आज वह सरायकेला के बीरबास पंचायत के भोलाडीह में संचालित
पुनर्वास केंद्र की संयोजिका है। प्रताड़ित महिलाओं की सहायता वह अपना धर्म मानती है।
छुटनी अब अकेली नहीं है। उसी की तरह डायन करार देकर प्रताड़ित की गई 62 महिलाएं
आज उसकी टोली में शामिल है। अलग-अलग गाव की इन महिलाओं को छुटनी ने
संबंधित गावों का पहरेदार बना रखा है। महिला प्रताडऩा की किसी भी तरह की घटना का
पुरजोर विरोध करने वाली ये महिलाएं अपनी मजबूत नेटवर्क के जरिये घटा भर में न
सिर्फ एकत्रित हो जा रही हैं, बल्कि संबंधित महिला को न्याय दिलाने में कोई कसर नहीं
छोड़ रही। छुटनी निरक्षर है, परंतु हिन्दी, बागला और उड़ीया पर उसकी समान पकड़ है।
छुटनी के निस्वार्थ सेवा को स्थानीय पुलिस-प्रशासन का भी भरपूर सहयोग मिल रहा है।
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