- वामपंथी शासन खत्म होने की नींव पड़ी थी यहां
- ममता ने किया है चुनाव लड़ने का एलान
- शुभेंदु अधिकारी का एकछत्र राज रहा है
एस दासगुप्ता
कोलकाताः चर्चा के केंद्र में नंदीग्राम फिर से आ चुका है। इसी नंदीग्राम के खून से सने
इतिहास ने ही पश्चिम बंगाल से वामपंथी शासन के विदाई का इतिहास लिखा था। सिंगूर
और नंदीग्राम दो ऐसे स्थान हैं, जिनमें अपनी गलतियों की वजह से वामपंथी शासन को
बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है। पश्चिम बंगाल में होने वाले विधानसभा चुनाव में
नंदीग्राम का उल्लेख फिर से होने लगा है। दरअसल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसी
नंदीग्राम से भी चुनाव लड़ने का एलान कर भाजपा की चाल को विफल करने की उल्टी
चाल चली है। नंदीग्राम के सबसे कद्दावर नेता बने शुभेंदु अधिकारी तृणमूल छोड़कर
भाजपा में शामिल हो चुके हैं। भाजपा ने उन्हें इसके लिए पुरष्कृत भी किया है तथा
कैबिनेट मंत्री का दर्जा प्राप्त पद दिया है। लेकिन इस बार की चुनावी लड़ाई अत्यंत रोचक
स्थिति में पहुंचती दिख रही है।
बंगाल की चुनावी राजनीति के इतिहास को समझ लें
बंगाल की चुनावी राजनीति के इतिहास को समझ लें तो यह स्पष्ट है कि साठ के दशक में
वामपंथी शासन के उदय के दौरान ही वहां के मुहल्लों में वोट मैनेज करने के साथ साथ
पुलिस को अपने पक्ष में रखने की रणनीति पर काम होने लगा था। वामपंथी शासन के एक
दौर में मुहल्ले से पार्टी का संपर्क कमजोर होने की वजह से मुहल्ला यानी बांग्ला भाषा में
पाड़ा पार्टी से कटता चला गया। इस मुहल्ले के संपर्क का अर्थ साफ शब्दों मे कहें तो
मुहल्ले के अपराधी किस्म के युवक थे, जो यह तय करते थे कि किस घर से किसे वोट देने
जाना है अथवा नहीं जाना है। पुलिस का समर्थन होने की वजह से विरोधी मतदाताओं को
इंकार करने तक की इजाजत नहीं थी क्योंकि पुलिस के पास शिकायत का कोई फायदा
नहीं होना था।
चर्चा के केंद्र में आये नंदीग्राम का रक्तरंजित इतिहास रहा है
पहले सिंगूर और बाद में नंदीग्राम में ममता बनर्जी ने इसी लाठीतंत्र के खिलाफ आम
जनता को खड़ा करने मे सफलता पायी। जिसका नतीजा यह हुआ कि जो पाड़ा के गुंडा
किस्म के लोग थे वे भी जन दबाव को समझते हुए खेमाबदल कर बैठे। नतीजा वामपंथी
शासन का अंत और तृणमूल कांग्रेस का उदय रहा।
इस बार भी चुनावी बिसात पर लगभग यही स्थिति है। बता दें कि यहां भाजपा का अपना
कोई कैडर का आधार नहीं है। जो पुराने भाजपा कार्यकर्ता थे, वे दरकिनार किये जा चुके हैं।
अब तृणमूल से आये नेताओं का ही भाजपा में बोलबाला है। इनके नेता जाहिर तौर पर
मुकुल राय हैं, जिनका किसी वजह से ममता से विवाद हो गया था। लेकिन पुलिस अब भी
ममता की तरफ रहेगा, ऐसा माना जा रहा है। ममता ने अपने मुहल्ले के नियंत्रण के कम
होने को पहले ही समझ लिया था। इसी वजह से हरेक दुर्गापूजा के आयोजकों को पचास
हजार रुपये की मदद कर नुकसान की भरपाई करने का काम किया गया है। लेकिन उससे
संकट दूर होता हुआ नजर नहीं आ रहा है क्योंकि मुहल्ले के बेरोजगार और अपराधी
किस्म के लोगों के लिए चुनाव भी कमाई का एक बेहतर अवसर होता है। भाजपा की तरफ
से भी खूब पैसा बहाया जा रहा है। इसलिए नंदीग्राम की लड़ाई जैसे जैसे पूरे राज्य में
फैलेगी, यह स्पष्ट होता जाएगा कि इस चुनाव में असली मुकाबला पाड़ा और पुलिस के
बीच ही है। जो जीतेगा, उसके पक्ष को चुनाव में सफलता हाथ लगेगी।
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