देश में बेरोजगारी के आंकड़े दिन ब दिन आसमान की तरफ उठते जा रहे ह । लॉकडाउन के
समय से ही यह सिलसिला चालू हुआ है जो दिनोंदिन और भी बढ़ता जा रहा है। इन पांच
महीनों में रोजगार गंवाने वालों में सबसे बड़ी संख्या वेतनभोगी कर्मचारियों की है। दूसरे
तरह के रोजगार कमोबेश शुरुआती झटकों से उबरने में सफल रहे हैं और कुछ श्रेणियों के
रोजगार में तो बढ़ोतरी भी हुई है लेकिन रोजगार गंवाने वाले वेतनभोगी कर्मचारियों की
संख्या बढ़ती ही जा रही है। लेकिन मौजूदा आर्थिक विपदा में सबसे ज्यादा मार इस पर ही
पड़ रही है। एक रोजगार को सामान्यत: वेतनभोगी तब माना जाता है जब किसी व्यक्ति
को एक संगठन नियमित आधार पर काम पर नियुक्त करता है और नियमित अवधि पर
उसे वेतन देता है। भारत में यह अंतराल एक महीने का होता है। यह नियोक्ता सरकार हो
सकती है या किसी भी आकार का निजी क्षेत्र का उद्यम या फिर गैर-सरकारी संगठन। वैसे
भारत के लोग सबसे ज्यादा सरकारी नौकरियों को पसंद करते हैं। ये सभी मोटे तौर पर
औपचारिक क्षेत्र की वेतनभोगी नौकरियां हैं। हालांकि वेतनभोगी रोजगार का दायरा इसके
आगे भी है। घरों में काम करने वालों को भी मासिक वेतन दिया जाता है। लिहाजा घरेलू
नौकर, रसोइया, ड्राइवर, माली और चौकीदार भी वेतनभोगी कर्मचारी की श्रेणी में आएंगे,
बशर्ते उन्हें तय समय पर तय वेतन दिया जाता हो।
देश में बेरोजगारी इस बार सभी क्षेत्रों से
लेकिन इस तरह के रोजगार अमूमन अनौपचारिक क्षेत्र में आते हैं। सभी तरह के
वेतनभोगी रोजगार की संख्या भारत के कुल रोजगार का 21-22 फीसदी है। वेतन पाने
वालों से अधिक संख्या किसानों की है और उनसे भी कहीं अधिक दिहाड़ी मजदूर हैं। अगर
किसानों एवं दिहाड़ी मजदूरों को एक साथ जोड़ दें तो वे भारत की कुल कामकाजी
जनसंख्या का करीब दो-तिहाई हो जाते हैं। भारत की तीव्र वृद्धि के बावजूद वेतनभोगी
रोजगार का अनुपात धीमी गति से बढ़ रहा है। पिछले वर्षों में भारत की समुचित आर्थिक
वृद्धि के बावजूद वेतनभोगी नौकरियों में आया यह ठहराव अकेली नाकामी नहीं है। यह भी
अटपटा ही है कि उद्यमशीलता में तीव्र वृद्धि होने के बावजूद वेतनभोगी नौकरियां उस
अनुपात में नहीं बढ़ी हैं। ऐसा होने की एक वजह यह है कि इनमें से अधिकतर उद्यमी
स्वरोजगार में लगे हैं और वे किसी दूसरे को काम पर नहीं रख रहे हैं। इसका सीधा मतलब
यह है कि वे बहुत छोटे स्तर के उद्यमी हैं। सरकार ने तो यह संकल्पना रखी है कि लोगों
को रोजगार मांगने के बजाय रोजगार देने वाला बनना चाहिए। यह मकसद पूरी तरह
हासिल होता हुआ नहीं नजर आ रहा है। उद्यमिता रोजगार सृजन का तरीका होने के
बजाय अक्सर बेरोजगारी के चंगुल से बचने की एक सायास कोशिश होती है। भारत 2016-
17 के बाद से जिस तरह की उद्यमशीलता का उभार देख रहा है, वह वेतनभोगी रोजगार
पैदा करने वाली नहीं दिख रही है। महामारी पर काबू पाने के लिए देश भर में लगाए गए
लॉकडाउन के दौरान बेरोजगार हुए लोगों के लिए कृषि अंतिम शरणस्थली रही है।
कृषि ही देश के मजदूरों का अंतिम सहारा बनी है
अगस्त 2020 तक कृषि क्षेत्र में रोजगार 1.4 करोड़ बढ़ गया। वर्ष 2019-20 में कृषि क्षेत्र में
11.1 करोड़ लोग लगे हुए थे। लॉकडाउन में उद्यमी के तौर पर रोजगार भी शुरू में घटा था
लेकिन अगस्त आने तक यह संख्या करीब 70 लाख बढ़ गई। इसके पहले 7.8 करोड़ लोग
उद्यमशील गतिविधियों में संलिप्त थे। लॉकडाउन का ज्यादा नुकसान तो वेतनभोगी
कर्मियों एवं दिहाड़ी मजदूरों को उठाना पड़ा। दिहाड़ी मजदूरी सबसे ज्यादा अप्रैल में
प्रभावित हुई थी। उस महीने बेरोजगार हुए 12.1 करोड़ लोगों में से 9.1 करोड़ दिहाड़ी
मजदूर ही थे। लेकिन अगस्त तक दिहाड़ी मजदूरों की हालत काफी हद तक सुधर गई। वर्ष
2019-20 के 12.8 करोड़ दिहाड़ी रोजगार के बरक्स अब केवल 1.1 करोड़ दिहाड़ी रोजगार
का ही नुकसान रह गया है। वहीं अगस्त आने तक सर्वाधिक असर वेतनभोगी रोजगार पर
पड़ा है। अप्रैल में बेरोजगार हुए कुल 12.1 करोड़ लोगों में से वेतनभोगी तबका सबसे कम
था। लेकिन अगस्त में वेतनभोगी नौकरियों में आई गिरावट कृषि एवं उद्यमी रोजगार में
सुधरी स्थिति पर देश में बेरोजगारी पूरी तरह भारी पड़ी है।
अगस्त के अंत तक करीब 2.1 करोड़ वेतनभोगी कर्मचारी नौकरी गंवा चुके हैं। वर्ष 2019-
20 में वेतनभोगी रोजगार की संख्या 8.6 करोड़ थी लेकिन अगस्त 2020 में यह संख्या 6.5
करोड़ ही रह गई है। नौकरियों में आई 2.1 करोड़ की गिरावट सभी तरह के रोजगारों में
आई सबसे बड़ी गिरावट है। जुलाई में करीब 48 लाख वेतनभोगी बेरोजगार हुए थे और
अगस्त में 33 लाख अन्य लोगों की नौकरियां चली गईं। ऐसा नहीं है कि नौकरियां गंवाने
वालों में केवल सहयोगी स्टाफ के लोग ही शामिल हैं। चोट काफी गहरी है और इसकी चपेट
में औद्योगिक कामगारों के साथ-साथ दफ्तरों में बैठने वाले भी शामिल हैं।
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